फागुन आने को है.. धान की कटाई-मेसाइ खत्म हुए कुछ ही दिन हुए है.. धान सिझाई अभी भी चल रहा है.. सबके घर में भोरे-भोरे ‘ढेकर-चूँ-ढेकर-चूँ..’ की ढेंकी की आवाज़ के साथ धान कुटाई चल रही है.. गाय-गोरु छूटे हो गए हैं.. पतझड़ का मौसम है.. महुआ के पत्ते झड़ के पुटुस की झुरमुटों के बीच और खेत की आरी के नीचे जमा हो गए हैं और डालियाँ खोचाने लगी हैं, तो कुछ महुआ के पेड़ों से महुआ के फूल गिरने भी लगे हैं.. महुआ की सौंधी और भीनी-भीनी खुशबु से पूरा वातावरण मदमस्त हो गया है.. पलाश के केसरिया रंग के फूलों से पूरे पहाड़ी के पहाड़ी भगवामय हो गए है.. आम भी मन्जराने लगी हैं.. जामुन भी पीछे नहीं है.. लोग-बाग खाली बैठे है.. औरतें और लड़कियां घरेलू कामों से फुरसत हो जामुन और आम के पेड़ की छाँवों के नीचे ‘गोटियां’ व ‘कितकित’ खेल रही हैं.. तो कुछ बुजुर्ग लोग सोन (जूट) लिए खटिया के लिए डोरा(रस्सी) गाँथ रहे हैं तो कहीं-कहीं खटिया भी बुन रहे हैं.. वहीँ कुछ जवान लोग शिकार के लिए जंगल की ओर रुख कर रहे हैं.. और सब कोई शाम में गाँव के कोठरिया में जमा हो होली के गीतों का ढोल-मृदंग-करताल के साथ रियाज भी कर रहे हैं।
और इन्हीं सब के बीच बमुश्किल 13-14 साल का लड़का.. नाम शुकरा. हल्का गोरा रंग.. गठीला शरीर.. खुला बदन लंगोटी पहने.. कादो-कीचड़ से लोट पोट काड़ा को पंचगड़वा बाँध में बिठा के पुरे मगन के साथ धो रहा है.. पुवाल के चोप से कान,गर्दन और पीठ को रगड़-रगड़ के धो रहा है.. पीठ पे चढ़ के अपने पैरों से कीचड़ को उतार रहा है फिर उसके ऊपर पुवाल का चोप रगड़ रहा है.. काड़ा मस्त मगन हो पगुराते हुए मुंडी उठा के पुंछ को पानी में बायें-दायें पटकते हुए अपनी धुलाई का आनन्द ले रहा है.. धोते-धोते ही शुकरा अपनी फूल टोन में होली के गीत गाये जा रहा है.. “बम भोले बाबा.. बम भोले बाबा.. कहाँ रँगवले पागड़िया.. पागड़िया हो पागड़िया.. हो बम भोले बाबा.. बम भोले बाबा.. कहाँ रँगवले पागड़िया..” .. तो बंधवा की आरी में कड़वा धोने से पहले दियां(दीमक) का चारा दिए पिंजड़े में बन्द गुंडरी भी अपना पँख फड़फड़ाते हुए अपने मालक शुकरा की गीत सुन ‘गुर्रर्रर्रर्रर….गुर्रर्रर्रर्रर..’ करके गुरगुराने लगती है जैसे उसके सुर में सुर मिला रही हो।
अभी शुकरा अपने पुरे मगन के साथ काड़ा धो ही रहा था कि चीड़ू महतो की बंधवा के पार टंडिया से आवाज आती है.. “अरे शुकरा !! .. ऐ शुकरा !! .. काड़ा धोवे ले छोड़ आर जल्दी दौइड़ के घार आ रे.. तोर बप्पा के सरवा भूते माइर देले हो रे शुकरा... जल्दी आ रे !”
भूते मारल का नाम सुनते ही शुकरा काड़ा धोना छोड़ गुंडरी का पिंजड़ा उठा सरपट घर की ओर भागता है.. घर पहुँचते ही देखता है कि उसका बप्पा गंदौरी महतो खटिया में चादर के अंदर लेटा पड़ा है.. मैया झुनिया देवी के संग काकी गुंगू भौजी सब दहाड़ मार-मार के रो रही है.. झुनिया देवी का तो रोते-रोते बुरा हाल है.. रोते-रोते ही दाँत लग जा रहा है.. शुकरा डरे-सहमे अपने बड़े भाई केला महतो के पास जाता है और पूछता है, “ ददा की भे गेले बप्पा के ?”
केला महतो शुकरा से लिपटकर रोते हुए कहने लगता है, “बाबू.. बप्पा के भूते माइर देलो रे.. राती बंसपहरी में खेरहा(खरगोश) खातिर फांसा आड़ के आइल हलो आर बिहान भिनसोरिये-भिनसोरिये गेल हलो बोनवा.. तखने भूते माइर देलो बप्पा के रे शुकर.. बरमसिया के मांझी देखलो तो हाल पहुँचालो हमनी के घार.. बप्पा हमनी के छोइड़ के चेल गेलो रे शुकर!”
ददा को रोता देख शुकरा भी रोने लगता है.. भीखू महतो आता है और दोनों को शांत कराने लगता है.. चाचा गुंगू सब बाँस काट के लाये है और आरी-रुखना-बैसला से काट-काट के अर्थी बना रहे है.. कुछ देर बाद गंदौरी महतो को खटिया से उठा के अर्थी पे लेटा देते है.. शुकरा के बड़े भाई विजय महतो और केला महतो और चाचा चतुर महतो और घुजा महतो अर्थी को कंधा देते हैं.. शुकरा आग की भोरसी लिए अर्थी के पीछे-पीछे निकलता है.. राम नाम सत्य है के साथ गंदौरी महतो की अर्थी आगे बढ़ती है.. झुनिया देवी अब आपे से बाहर हुए जा रही है.. पटका-पटका के कुल्हिया में रोये जा रही है.. गंदौरी महतो अब सदा के लिए उनकी आँखों से ओझल हुआ जा रहा है.. कुछ देर चलते ही कुल्ही के मोड़ ने गंदौरी महतो को झुनिया देवी से सदा के लिए ओझल कर दिया।।। .. मंगर महतो और जगदीश महतो बैल गाड़ी ले सबके घर के आगे गंदौरी महतो के अंतिम क्रिया के लिए रखे लकड़ी को उठाते हुए जा रहे हैं।
दाह संस्कार हुआ.. रिश्ते नातेदारों से सहायता माँग किसी तरह दशकर्मा भी पार हुआ.. लेकिन झुनिया देवी सदमे से बाहर निकल ही नहीं पा रही है.. एकाएक रोने लगती है.. उनकी हृदय-विदारक रुदन सुन के किसी के मुँह में खाने का निवाला नहीं जा पाता है.. आस-पड़ोस की महिलाएं आकर ढाढ़स बंधाती है। ।
गंदौरी महतो शिकारी आदमी था.. उनके पास खेती के नाम पे कुछ जमीन और पहाड़ी थी.. और पहाड़ी में ही टूटा-फूटा खपरैल घर.. खेती से दो-तीन महीने ही परिवार का भरण-पोषण हो पाता था.. बाकी के दिन शिकार और गाँव के बड़े महतो के यहाँ मजूरी कर के अपना परिवार चलाते थे.. गंदौरी महतो के तीन लड़के, विजय महतो, केला महतो और शुकर महतो.. विजय महतो और केला महतो की शादी हो चुकी थी.. शुकरा का ब्याह नहीं हुआ था.. गंदौरी महतो के शिकारी होने के कारण घर में पंड़की,तितर,गुंडरी,मैना,तोता,बाज,नीलकण्ठ आदि पंक्षी पिंजड़े में टँगे रहते थे.. इन्हीं का प्रयोग कर वो जंगल में शिकार करते थे.. हर शाम जंगली सूअर से लेकर खरहा पंड़की, तितर,गुंडरी आदि का बियारी(डिनर) होता था.. गंदौरी महतो का घर में प्रवेश करते ही सभी पंक्षियाँ पिंजड़े के अंदर पँख फ़ड़फ़ड़ा के चहचहाने लगती थी.. फिर गंदौरी महतो सबको चारा डालता.. फिर सीटी बजा-बजा के सबको दुलारता.. गंदौरी महतो का ‘शिकारी सीटी’ सुन के सभी पंक्षियाँ अपनी-अपनी आवाज निकालने लगती.. लेकिन गंदौरी महतो के चल बसने के बाद इन पंक्षियों का पिंजड़े में हलचल होना बन्द सा हो गया.. सब गुमसुम सी हो गई.. सब यही सोचती कि अब गंदौरी महतो आएगा.. अब आएगा.. और सीटी मारते हुए हमें चारा देगा.. लेकिन नहीं.. गंदौरी महतो का आवाज़ न सुन पंक्षियाँ पिंजड़े के अंदर बस बैठी रहती थी गुमसुम सी... चहचहाहट गायब हो चुकी थी.. झुनिया देवी कुछ चारा देती उसके हाथों को नोचने लगती जैसे पूछ रही हो कि “ये मिराइन हमनी के मिरवा(पालनहार) के कहाँ भेज देली ऐ मिराइन.. ओकर सीटी सुनल बिना हमनी के खाना नहीं खियावत है.. ये मिराइन जल्दी से मिरवा के बोलावा ने.. ऐ मिराइन!” .. उनकी पिंजड़े के अंदर छटपटाहट देख के झुनिया देवी पिंजड़ा पकड़ के ही रोने लगती.. सभी चिड़ियाँ भी पिंजड़े के अंदर अजीब-अजीब ढंग से छटपटाने लगती.. जैसे कह रही हो कि ऐ मिराइन हमको भी पिंजड़े से बाहर निकालो हम भी रोयेंगे आपके साथ। .. पंक्षियों का यूँ गुमसुम रहना झुनिया देवी को अच्छा नहीं लगने लगा.. एक दिन सभी के पिंजड़े के दरवाजे खोल दी.. और बोलने लगी “अब जा तोहनी सब आपन-आपन जगह.. जहाँ मन करतो हुवा जा.. अब तोहनी के मिरवा कहियो नाय अइतो.. बड़ी दूर चेल गेल हथुन उ.. अब कभी नाय ऐबथुन.. जा अब तोहनी जा.” .. लेकिन पंक्षियाँ हैं कि पिंजड़े से निकलने का नाम ही नहीं लेती हैं.. पिंजड़े को हिला-हिला के सभी पंक्षियों को बाहर निकालती है झुनिया देवी.. पंक्षियाँ निकल के घर के आँगन में लगी बाँस के टंगना में बैठ जाती हैं.. वहाँ बैठ के सब आवाज़ करने लगती हैं.. झुनिया देवी रोते हुए एक हाथ से लुगा के आँचल से आँसू पोछते हुए और दूजे हाथ में डंडा लिए टँगना के पास जाती है और उड़ाते हुए कहने लगती है.. “भाग हिया से तोहनी.. आब तोहनी के हिया कोय नाय हो… तोहनी के जे हिया हलो से अब सब कुछ छोइड़-छाइड़ के चेल गेले हो.. भाग हिया से.. भाग!”
पंक्षियाँ उड़ के छानी के मुंडेर में जा के बैठ जाती हैं... फिर कुछ देर बाद वापिस टँगने में आ के आवाज करने लगती हैं…. झुनिया देवी बस डंडा लिए उन्हें उड़ाती और साथ ही साथ मड़ुआ गोंदली का चारा भी आँगन में छींट देती.. पंक्षियाँ कुछ खाती और फिर आँगन में ही इधर-उधर कूदती-फुदकती।।
खैर समय बीतता गया और स्तिथि सामान्य होते गई… समय के साथ-साथ चिड़ियाँ सब भी आँगन छोड़ के चली गई.. शिकार के लिए दूसरी पंक्षियाँ पोसाने लगी .. शुकरा के दोनों बड़े भाई की शादी हो चुकी थी.. तो झुनिया देवी शुकरा के साथ ही रहती थी.. घर में पाँच-छः गायें लगती थी.. झुनिया देवी दूध दुहती और घी बना के बेचती.. इस वक़्त गाँव में मुद्रा की पहुँच लगभग नगण्य थी.. बाहर सरकार-फरकार है या नहीं है किसी को कुछ मतलब नहीं.. यहाँ इनकी खुद की अर्थव्यवस्था है.. सामान के बदले सामान.. अपवाद स्वरूप ही मुद्रा का लेन-देन..जमीन की लिखाई-पढ़ाई में ही ज्यादा.. झुनिया देवी घी बेच-बाच के किसी तरह कुछ और जमीन जोड़ी.. सभी बेटें किसी न किसी के घर जा के कमिया खटते थे.. तो पार्ट टाइम कमाई के लिए घर-ओराइ से ले के डोरा बाँटना, खटिया बुनना और हल-जुआठ छोलना सीखते थे।।
कुछ समय और बीता.. शुकरा अब सोलह साल का हो गया था.. झुनिया देवी को बेटे की शादी की चिंता हुई.. देवर चतुर महतो से शुकरा के लिए लड़की ढूंढ़ने को बोली.. बलथरिया गाँव से जोधी महतो की बेटी कोलिया का रिश्ता आया.. जोधी महतो और उसके भाईयों ने घर का गोबरडिंग और धान-चावल के बीटें देखे और तब जा के बात फाइनल हुई.. कोलिया देवी तब चौदह साल की थी जब ब्याह हो के झुनिया देवी के आँगन में आई थी.. ब्याह के दिन झुनिया देवी बहुत खुश थी.. ढाक के आगे झूमर गा-गा के खूब नाची थी.. वहीँ मड़वा भीतर अपनी अश्रुपूर्ण आँखों से ऊपर देखते हुए गंदौरी महतो से बोल रही थी “ऐ हो सिकरिया.. देखा आईझ हम आपन शुकरा के बिहा केर देलियो.. तोहे छोइड़ के चेल गेल हला ने.. हम पूरा केर देलियो.. ऐ सिकरिया तनी हमरा माफ़ करिहा.. आब तो हम शुकरा के बाल-बच्चा के भी बिहा देख के मोरबो”।
शादी के बाद झुनिया देवी को थोड़ी राहत हुई.. अब वो बस हुकुम चलाती थी.. भिनसोरिये-भिनसोरिये सभी बहुओं को कूच-कूच के उठाती और ढेंकी से धान कुटवाती थी.. नहीं उठने पे गरियाती भी खूब थी.. शुकरा की दुल्हिन अभी नई-नवेली थी तो ज़रा प्यार से पेश आती थी.. वहीँ इनकी जेठानियां जलती थी।। .. घर की खेती-बारी से बस दो-चार महीनों का ही गुज़ारा हो पाता था बाकी के दिन जैसा कि ऊपर लिखा किसी के घर मजूरी कर के ही। .. ऐसा नहीं था कि केवल पुरुष ही मजूरी करते थे.. महिलायें भी जाती थी.. जिनके घर ज्यादा धान होता था उनके घर जा के धान सिझाने से लेकर धान कुटाई और पोछराई का काम करती थी और बदले में मजूरी में रूप में कुछ पैला चावल और दाल आटा मिल जाता था.. कोलिया देवी नई-नवेली थी तो जेठानी सब दबाव डालती थी कि तुम यहाँ महारानी नहीं हो.. जा के किसी के घर काम-धाम किया करो.. बैठ के रोटी मत तोड़ो.. डरी-सहमी कोलिया देवी गाँव के महतो के घर जा के काम करती.. घर में मिट्टी लेपना, घर झांटना, ढेंकी कूटना आदि का काम करती और बदले में चावल-दाल ले के घर आती थी.. निरन मास के बाद धान बिहिन की बुवाई होती और धान बिहिन उग जाने के बाद गाय-गोरु को टेकने का जिम्मा किसी एक को दिया जाता जिसे कि ‘गोरखिया’ कहते हैं.. गोरखिया हर मवेशी के पीछे धान डिसाइड करता है और कटाई-मेसाइ के बाद वो धान वसूलता है.. अमूमन जिनके पास जमीन नहीं होती थी वो ज्यादातर गोरखिया का काम करते थे.. शुकरा ने शादी होने के बाद ठाना कि इस बार से हम गोरखिया करेंगे.. और किया भी.. गाँव के सारे मवेशी को चराता.. दोनों मियां-बीवी मिल के चराते.. कोलिया देवी मड़ुआ रोटी और माड़ भात जलपान के रूप में शुकरा के लिए ले के जाती.. फिर दोनों बेगेत साथ में मिल के खाते और मवेशी चराते.. और इन्हीं सब के दरमियाँ उन दोनों का प्रेम परवान चढ़ता.. शुकरा गाने का बड़ा शौक़ीन था.. डंडे को कन्धे में डाल उसमें दोनों हाथ को फंसा के कोलिया देवी को गाना सुनाता.. कोलिया देवी मारे शर्म के आँचल से अपना चेहरा छुपा लेती।
ये सब घटनाएं आरंभिक सत्तर के दशक की हैं। .. बाहरी दुनिया की सुगबुगाहट गाँव में भी प्रवेश करने लगी थी.. कोयले की खुदाई चल रही थी.. सभी खदानेँ निजी हाथों में थी.. ठेकेदारों के हाथों में थी.. मैन-पॉवर के लिए उनकी डम्पर की गाड़ियां गांवों में आती थी कि चलो काम करने.. काम के साथ ही तुरन्त पैसा मिल जाएगा.. लेकिन कोई नहीं जाता था.. उस टाइम एक कहावत बड़े जोरों से चली थी “जे पैसा झरिया में, उ पैसा हमर बरिया में”.. कोल माइंसों में जा के मजूरी करना बहुत ही फ़ालतू और घटिया काम माना जाता था.. कम्पनियां ऊँगली पकड़ के जाती थी लेकिन काम करना कोई नहीं चाहता था.. विजय और केला महतो भी गए कुछ दिन लेकिन सब छोड़-छाड़ के आ गए और गाँव में ही खो गए.. शुकरा गोरखिया सीजन खत्म होने के बाद कभी-कभार कोल माइंस चला जाया करता था.. और दिहाड़ी के तौर पे कुछ पैसे मिल जाया करते थे। लेकिन वहाँ जाना एकदम नगण्य सा था।
फिर 1973 में कोयला का राष्ट्रीयकरण होता है.. और सभी कोयला खदानें सरकार के कण्ट्रोल में आती हैं।
गाँव के ही जगदीश महतो जो पाँचवीं पास थे वो CCL में मुंशी के पद पर नियुक्त हुए। .. मजदूरों की भारी माँग थी.. लेकिन कोई करना नहीं चाहता था.. तो शुकरा जैसे ही लोग ज्यादा आये इसमें.. शुकरा अगले साल भी गोरखिया में लग गया.. गोरखी करते हुए ही एक दिन जगदीश महतो शुकरा के पास आया और बोला, “आय रे शुकरा.. कते दिन गोरखी केर के खैबे रे .. अब ई गाय-गोरु सब टेके ले छोड़ आर चल कोलियरी काम करे ले.. तोर नाम लिखाय देल हियो रजिस्टर में.. अब कोयला सरकार के अंडर में आय गेले हो.. इंदिरा गांधी कोयला के राष्ट्रीयकरण केर देले हो… तो आब ठेकेदारी बन्द.. तो अब पगार सरकार देतो.. तो छोड़ इ गरु टेके-टाके ले आर चल कोलियरी काम करे ले”।
शुकरा को तो कुछ बुझाया नहीं राष्ट्रीयकरण फाष्ट्रीयकरण लेकिन जगदीश महतो को मानता बहुत था.. सो गोरखिया का काम छोड़ा और कोलियरी जाने लगा.. शुकरा के इस कदम से विजय महतो बहुत गुसाया कि शुकरा अब गया काम से।
शुकरा को CCL में मलकटा में रखा गया.. मट्टी को हटाना और झोड़ा ढोने का काम करना.. झोड़ा में कोयला भर के ट्रकों और डम्परों में लोड करना.. फिर कुछ दिनों बाद लोडिंग के लिए मशीनें आने लगी.. तो इन्हें कुछ दिनों के लिए सबल मारने में लगा दिया गया.. फिर वहाँ से गैराज में भेजा गया.. और फिर उसके बाद लोडर के हेल्पर के रूप में लोडर में शिफ्ट करा दिया गया.. और इसी दौरान शुकरा को एक बहुत ही प्यारी सी बेटी हुई.. नाम सोमरी(सोमवार के दिन पैदा हुई).. हेल्परी/खलासी करते-करते कुछ सालों में ऑपरेटर भी बन गया।.. इनके पगार और प्रमोशन के साथ-साथ परिवार भी बढ़ता गया.. और 1994 आते-आते दो बेटियां और चार बेटें।
जिन जमीन वालों के घर शुकरा जैसे लोग कमिया खटते थे वे अब शुकरा जैसों से जलने लगे.. CCL, BCCL में काम करने से शुकरा जैसों की हैसियत बढ़ने लगी.. पैसे आने लगे.. अब जब पैसे आने लगे तो जमीन भी खूब खरीदने लगे.. और जो शुकरा कुछ साल पहले तक दूसरे के घर जा-जा के कमिया खटता वो अपने घर में कमिया रखने लगा था।
पैसा का बहाव तो गाँव में आना शुरू हुआ लेकिन ये पैसा बुराइयां भी बहुत लाया.. और इन्हीं सब बुराइयों में से एक थी ‘दहेज़’! … जब नौकरी-चाकरी न हुआ करती थी तब बिना दहेज की ही शादी होती थी.. लेकिन अब बिना दहेज के तो मुमकिन ही नहीं.. शुकरा की शादी बिना दहेज के हुई थी लेकिन शुकरा ने अपनी बेटी सोमरी का ब्याह 30 हज़ार रुपया दहेज दे के किया था.. वहीँ अपने बड़े बेटे की शादी में 80 हज़ार रुपया तिलक लिया था।
चालीस सालों में कितना बदला है भारत..और कितना बदला है गाँव ! … चालीस साल पहले नौकरी वालों को ठुल्ला समझते थे.. हाथ में पकड़ के ले जाने पे भी नौकरी करने नहीं जाते थे.. लेकिन अब ?? … जब तक सरकारी नौकरी नहीं.. तब तक बेटी नहीं.. और उ भी तगड़ा दहेज़ के साथ।
गाँव के जो छोटे-मोटे उद्योग थे मसलन झाड़ू-टुपला-खेचला चटाई से ले के रुखना-बैसला-कड़ाही डेगची तक वो सब बन्द होते गए.. और इन सब का इंडस्ट्रीलाइजेशन होता गया.. जो लोग इस काम में निपुण थे वो बस इस इंडस्ट्री का हिस्सा होते गए.. और इन सब हिस्सा होते हुए सबकी हैसियत पैसों से नापी जाने लगी.. और अगर पैसा सरकारी हो तो क्या कहने!
खैर शुकरा इन चालीस पैंतालीस सालों के बदलते भारत के साक्षी रहे है और जीवन जीने की जीवटता अब भी सीखा रहे है.. और वो शुकरा कोई और नहीं मेरे बप्पा याने श्री शुकर महतो है।
आपको बारम्बार प्रणाम बप्पा।
झुनिया आजी आई लभ यू।
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गंगा महतो
खोपोली।
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