Saturday, August 20, 2016

||रमेसरा कर लभ लेटर||


मोर करेजा के टुकड़ा
स्वीट हार्ट कोलेसरी,
                                💘💘

       “लिख रहा हूँ खत खून से स्याही का मत समझना,
        बौराया हूँ सिर्फ तुमरे पियार में जमाने का मत समझना।“

बहुते मुश्किल से ई पेन आर कॉपी उठाये है तुमको लेटर लिखने के लिए। जिया धकधकाय रहा है, हथवा हड़बडाय रहा है, हैण्डराइटिंग ठीक से बैठ रहा नहीं रहा है, पहली बार जो लिख रहे है न, तो तनी माफ़ कर देना गोल-गोल लिखाय नहीं रहा है, मकिन हमर जज़्बात एकदम गोल-गोल आर ठोस है।
पहले तोर गाँवा के परसा गजरवा धारी खाली संझिया बेरा घरी मिलना हमरा एकदम से झनझनाय देता था.. लेकिन सिर्फ एक टेम ही मिल पाते थे, उ भी डरे-डरे आर जादा टेम खातिर नाय, मन नहीं भर पाता था, फिर हम सगर घरी तोरे याद में एकदम पगलेट जइसन घुरले चलते थे.. सगर घण्टी बस तोरे से बतियाने का मन करता रहता था.. तब हम बस तोर से बात करे के खातिर कारीपानी से हड़बड़ाहा सैकला ले के बत्तीस दिन लगातार कोयला ढोये थे और कोयला डीपू में कोयला बेचे के दू गो इंटेक्स का एंड्राइड वाला मोबाइल खरीदे थे, एक ठो तुमको दिए थे और एगो हम खुद रखे थे.. और तब से हम तुमसे पेट भर के बतियाते थे, फेसबुक वाट्सअप में डूबल रहते थे.. लेकिन का कहे पिछले तीन दिन से साला ई जो लैनिया कटा है सो अईबे नहीं किया है.. मोबाइलवा नरसुवे राती तुमसे जो लभ जू कहने के बाद जो बन्द हुआ है सो अब तक भी मरा हुआ है.. जिया एकदम बसतल लकड़ी जइसन धुंवाय रहा है.. पेट के भात नहीं पच रहा है.. लग रहा है कि डीभीसी का प्लांट जाय आर साला उसका प्लांटवे बम से उड़ाय दे.. साला हमनी के कोयला-धोयला आर हमनिए के बिजली नाय!!.. रे कोलेसरी हमर-तोर प्यार के दुश्मन खाली तोर भईवा आर बप्पे नाय हो मकिन ई डीभीसी वाला सब भी हथुन। .. मोबाइलवा चर्जरवा में ठूस के रखले है कि कखनो लैन आय और जरिको सा भी चारज हो जाय और तुमसे तनी गुटरगूँ कर ले।। से खातिर आज हम लेटर लिखने बैठ गए.. और ई लेटर हम आपन दूफेड़ी महुआ गछे चढ़ के लिख रहे है. इसे तुम अपने दिल का महुआ गाछ समझना।
“तोरे प्यार में रे कोलेसरी
कभी फुसरो तो कभी ईसरी
कभी बालूशाही तो कभी मिसरी
कभी कदम,महुआ तो कभी पचरी।“

अब जब हम लेटर लिखिए रहे है तो हम पहिलका भेंट का जिक्र करेंगे जब तुम हमरा दिल चोराय के जोभी खेत में गाड़ दी थी।.. हमर मोसियाइत ददा के बिहा में जब तुम भौजी का लोकदिन बन के बरमाला के स्टेज पे आई थी.. तोरा देखते ही ‘दिला मोरा हुबुक-डुबुक करे न रे, दिला हुबुक-डुबुक करे न’ करने लगा था।.. ललका टॉप और करिका जीन्स में तुम एकदम ‘भेलवा’ जइसन लग रही थी।.. गाल एकदम अइसन जैसे ऐरसा रोटी, आईख के लपकी-झपकी अइसन कि जैसे बस-पहरी के बोन, दाँत अइसन कि जैसे तेतेर के पात आर चमको हलो अइसन कि जैसे पोठी माछ.. होंठ अइसन जैसे सुगा के ठोर, नाक अइसन तीख जइसन पारसनाथ के चोटी, बाल अइसन करिया जइसन कारीपानी के कोयला, बोली तोर अइसन जैसे विविध-भारती से टरेनिंग ले के लौटी हो.. चाल अइसन जैसे बहियार खेत में लहलहाती धानों का हवाओं के साथ मचलना। कुल मिलाय के करिश्मा कपूर से भी जादे लग रही थी… देख के तो हम आउट ऑफ़ कण्ट्रोल हो गए थे.. दू डिब्बा स्प्रे हम तो केवल तुमरे ऊपर छुस-छुसाय दिए थे… “मोर दिला के केर लेले चोरी गे” के गाने ऊपर हम साढ़े पचहत्तर बार एकदम से घोलट-घोलट के डांस किये थे, क्योंकि छिहत्तरवें बार में तुमरा भाई आ के लड़ाई कर दिया था।
तुमको याद है रे कोलेसरी जब हम तुमसे पहली बार बोले थे “हेल्लो मैडम.. हू आर यू!” .. तो तुमने क्या बोला था ?
“छोड़ा ई सैंडिल्या देखो ही रे, कपारे अइसन मारबो ने कि सीधा गोदिया तक चेल जीतो”.
क़सम से उ सैंडिल्या वाला बात कपार के गोदी में तो नहीं घुसा लेकिन हमर दिल में अइसन घुसा जैसे नेटी मछरी कादो में दनदनाइल घुस जाती है।.. तखने हम बूढ़ा माँझी से प्रार्थना किये थे कि “हे बूढ़ा माँझी.. यदि कोलेसरी हमसे प्यार से बात करने लगी न तो हम तोरा के लाल बंगवा मुर्गा काटेंगे”. .. और बूढ़ा माँझी ने हमारी बात सुनी जब घूरा-फिरी के टाइम भौजी के कहने तुम हमको बोली थी “हाय रामेसर, कैसे हो?” .. क़सम से क्या बताये क्या ख़ुशी मिली थी हमको, सौभाग्य से उ दिन शनिवारे था, दौड़ते हुए घर आये थे और ललका मुर्गवा को दौड़ा-दौड़ा के पकड़े थे और बूढ़ा माँझी के यहाँ काट के आये थे। .. लगले हाथ द्वेरसिनी मैया से भी प्रार्थना कर दिए थे कि “हे द्वेरसिनी मैया जदि कोलेसरी हमसे प्यार करने लगी न तो तोहरे द्वार में हम भेड़ा काटेंगे”. .. और हमरी प्रार्थना द्वेरसिनी मैया ने भी सुन ली जब हम चौथे मिलन में ही तुमसे प्यार का इज़हार किए थे और तुमने एकदम ऐश्वर्या राय टेप में शरमाते हुए एक्सेप्ट किया था।.. उ हमर जिनगी के सबसे बेस्ट पल था रे कोलेसरी।
कोलेसरी आज हम एक बात बताते है जो कि हम तुमसे छुपाये है.. मालुम है उस दिन जब तुम हमको फोन करके बुलाई थी मिलने अपने छत के ऊपर.. हम गए थे.. हम दीवार में लगे ईंट के जेन से लटक-लटक के ऊपर चढ़ ही रहे थे कि तबे पता नहीं तुमरा बप्पा कहाँ से आ टपका, हमरा चेहरा तो नहीं देख पाये थे बाकी उजरका शर्टवा से देख लिए कि कोई छत पे चढ़ रहा है.. हल्ला करके आपन पोसलहा कटवा कुकुर को मेरे पीछे दौड़ा दिए थे.. मैं आधे दीवार से ही नीचे कूद गया था, मेरा गोड़वा मोमड़ाय गया था, किसी तरह उठे और जो भागे थे कि क्या बताये.. अरे उ कुकरा तो हमको अटाये लेता लेकिन हम भी हाई इस्कूल में दौड़े में फस्ट प्राइज जीते है, कुकरा को तो कहीं सटने नहीं दिए थे, कुकरा तो गाँव के सीमा के बाहर नहीं आया लेकिन हाय रे मेरी किस्मत, मैं दौड़ते हुए पीछे मुड़-मुड़ के देख रहा था कि कोई आ तो नहीं रहा, एतने में ही एगो गढ़ा में हम हड़ास से तुबाय गए, गोड़वा के सुपलिया एकदम से घूर गया.. माय क़सम हम हुवे गोड़ पकेड़ बैठे रहे आधा घण्टा, फिर कोनो नियर लेंगेले-लेंगेले घर आये थे.. काकू के दोकना से अमिता बच्चन वाला मूव क्रीम लाये थे और पूरा घस-घस के लगाए थे, लेकिन साला कोनो आराम नहीं मिला था.. फिर गाँवा के एक वैध से सोटवाये थे चार बोतल महुआ दे के।.. माय क़सम तोर बप्पा कोनो अमरिस पूरी से कम नाय हो।
और एक बात बताते है… जब तुम मेट्रिक का परीक्षा दे रही थी न तब हम तुमको दुसरका मंजिलवा में पाइप पकड़-पकड़ के चढ़ते थे और चुटका पहुँचाते थे.. एक बेर साला पुलिस वाला सब आ गया, हम पहिलका मंजिलवा के खिड़किया तक चढ़े थे.. हमका ऐकबगै पुलिस देख के तो अकबकी छुट गया.. हम वहँ से छलाँग मार के कूदे और दौड़ने लगे.. पुलिस वाला बड़का मोटा रूल ले के ओहे कुकरे के माफ़िक़ हमरे पीछू दौड़ा था.. बोला रुक..रुक… लेकिन हम कहाँ रुकने वाले थे.. साला उ पुलिस वाला आपन रूल अइसन झबेद के मारा था कि पूरा का पूरा रूल मेरा पिछवनिया में आ के सट गया था.. माय क़सम का बताये .. पूरा उथेल गया था.. घर आय के आपने हाथ से कोनो नियर कड़ुआ तेल आर छेछल प्याज़ को गरम कर-कर के सेंके थे। और फिर दूसरे दिन तुमरे चुटका पहुँचाने खातिर हाज़िर थे।
माय क़सम जब हम अपना मोबाइल में देखे कि तुमरा 85 परसेंट आया है तो मारे ख़ुशी के पगलाय गए थे.. घर के बीटा से महुआ निकाल के बेचे थे और पुरे गाँव में पेड़ा बाँटे थे और सभिन दोस्त सब के बियर पिलाये थे।
अबकी बार इंटर में तनिक मन लगा के पढ़ो नहीं तो खैर हम हइये है शक्तिमान जइसन चुटका पहुँचावे में माहिर, मकिन 80 परसेंट से कम नहीं लाना है।
अहे बतिया में हम तोरा के सतीश दास के एक गाना समर्पित करते है..
“एते सुंदर मुखड़ा देखाय हे झक्कास,
तोरे संगे करबो बिहा देखो हियो आस,
कोलेसरी कहिया करबी गे~~ तोय इंटर पास।“
बाकी हम रजरप्पा के काली मैया के यहाँ जोड़ा-पाठा गछ दिए है तुमसे बिहा करे के खातिर.. और बूढ़ा माँझी और द्वेरसिनी मैया के जइसन ही रजरप्पा माई भी हमको निराश नहीं करेगी। .. बिहा में हम सतीश दास आर बंटी सिंह के आर्केस्ट्रा भी मंगायेंगे.. ददा-भौजी को सब बात बताय दिए है.. बाकी तुम जल्दी से इंटर पास हो जाव।
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और अब हम का बताये, यहाँ महुआ के पेड़ में FM बाजा चला के तुमको लेटर लिख रहे है, नीचे महुआ गिर गया है, अब बिछने नीचे उतर रहे है, काहे कि अहे महुआ है जो हमारा-तुम्हारा नाईट पैक और इंटरनेट का रिचार्ज करवाता है।.. बस महुआ के फूल के रस के जइसन हमनी के प्यार के मिठास बनल रहे।
लास्ट में तोर खातिर मनोज देहाती के गाना प्रस्तुत हो,
“तोय हमर दिल लागे तोय हमर जान लागे,
काली मैया ठिने कोलेसरी तोय माँगल लागे,
हमे पागल भे जिबो गे, हम तोर बिना मर जिबो गे।“
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बस अहे कामना के साथ
भेरी भेरी I 💘💘💘 You कोलेसरी

तोर बौराहा
रामेसर।
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गंगवा
खोपोली।

Saturday, August 13, 2016

||बम्बई||

बम्बई नगरी ! ... ये शब्द ही बहुत कुछ कहती है … कितने किताब, उपन्यास,नाटक,फ़िल्म इसपे बन चुके हैं.. बन रहे हैं.. रोज दसियों पत्र-पत्रिकाएं और अखबार छपते हैं इसके नाम से.. भारत की आर्थिक राजधानी! … कुछ दिन पहले यूट्यूब पे एक वीडियो देख रहा था.. उसमें एक जन अमेरिका में अमेरिकियों से पूछता है कि “यदि मैं इंडिया बोलूँ तो सबसे पहले आपके मन में क्या आता है ?” .. तो अधिकतर के ज़वाब थे “ इंडिया मने ताजमहल” ..  फिर था “इंडिया मने बॉलीवूड” फिर था “इंडिया मने स्लम्स” तो कुछेक के ज़वाब थे यहाँ के ‘मसालेदार खाना’! .. खैर विदेशियों के मन में भारत मने बॉलीवुड .. वहीँ अगर हम भारतीयों की बात करे तो महाराष्ट्र मने मुम्बई और मुम्बई मने बॉलीवुड!! और बॉलीवुड के कारण आमची चमचमाती मुम्बई! .. मुम्बई को जितना जाना था वो केवल किस्से-कहानियों, फिल्मों और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही। .. गाँव में जब भी कोई बम्बईया हीरो आता था न तो हम उसको घेर के बैठ जाते थे.. और फिर जो वो लम्बी-लम्बी फेंकता था, उसमें हम बस बहते चले जाते थे।.. उसकी बातों को इतनी तल्लीनता से सुनते कि उसके शब्दों के साथ-साथ में मुम्बई में प्रविष्ट में जाते थे और बस यही चाहते थे कि तुम बस सुनाते जाओ सुनाते जाओ बम्बई की कहानियाँ और हम बम्बई से बाहर निकले ही नहीं। हीरो-हीरोईन की बातों का तो क्या कहना.. खोद-खोद के पूछते थे..और वो भी तेल मसाले कम नहीं लगाते थे .. बम्बईया हीरो सब का चाल-चलन, पहनावा और बोली अन्य लड़कों से अलग कर देती थी.. लड़कियां चुम्बक की भांति खींची चली आती उसकी तरफ.. तो हमरे मन में भी यही ख्याल आता था कि साला हम कब जाये बम्बई ? .. खैर तब तो हम न आ पाये.. गाँव से पहली बार बाहर निकले तो हजारीबाग के लिए। फिर बोकारो.. कुछ दिन राँची और फिर उसके बाद नागपुर। .. जब भी नागपुर से गाँव जाता तो सब यही पूछते ‘बम्बई से कब आया.. कुछ सुनाओ बम्बई के बारे में !’ .. फिर हम समझाते ‘अरे हम बम्बई में नहीं रहते है.. नागपुर में रहते है.. बम्बई बहुत दूर है नागपुर से।‘ .. लेकिन मन में था कि कभी बम्बई भी जाये।.. खैर ये कामना पूरी हुई.. आज से यही ठीक चार साल पहले.. अगस्त 2012 .. जब हम मुम्बई में कदम रखे.. अकेले आये थे.. कोई आईडिया नहीं था इस शहर के बारे में.. बस भूषण स्टील के कुछ जनों का कॉन्टेक्ट नम्बर था.. हालाँकि मेरे गाँव के बहुत सारे बम्बईया हीरो रहते थे लेकिन किसी का नम्बर नहीं था।.. शाम-शाम को उतरे रहे दादर स्टेशन में।.. जैसे ही ट्रेन से बाहर आया , रे बाबा !!! .. इत्ता भीड़ !! .. माय कसम एतना भीड़ तो हम भेण्डरा मेला में भी नहीं देखे थे.. पहली बार इस तरह की भीड़ से पाला पड़ा था।.. ले दन दन दन चले पड़े हैं.. किसी के पास कोई टाइम नहीं… सब जल्दी में हैं.. इतने में कोई लॉकल आती है दूसरे प्लेटफॉर्म पे… ले धड़ धड़ धड़.. धप धप धप करते दौड़ते लोग.. लगा कि साला कहीं ब्रीजे न टूट जाय!.. मुझे दो-तीन जन धक्के मारते हुए पास हुए.. मैं बड़ी मुश्किल से किनारे पे आया।.. यहाँ पे एक अजीब सा देखा.. लोग अमूमन बैग पीठ पे ले के चलते हैं लेकिन यहाँ बैग को छाती और पेट के बल पे ले के चलते हैं।.. किसी से कुछ पूछो तो जल्दी-जल्दी में ही क्या-क्या बोलता कुछ पल्ले ही पड़ता.. मैं ऑवरब्रिज में खड़ा ही था कि भैया का फोन आया ..
“अरे पहुँच गया ?”
“हाँ दा.. अभी जस्ट उतरे है”
“कहाँ हो अभी ?”
“दादर में”
“अभी खोपोली को निकलोगे कि कहाँ रहोगे ?”
“नहीं अब अभी नहीं निकलूंगा.. यहीं कहीं होटल में रुक लूंगा।“
“अरे होटल में काहे रुकेगा ! … गोरेगांव में बड़का दादा (मौसी का लड़का) रहता है.. वहीँ पे चले जाओ.. दादर से 20-25 मिनट लगता है लोकल से!”
“ठीक है.. फिर उनका नम्बर दे दीजिये”
भैया नम्बर देते है.. मैं फोन लगाता हूँ.. दादा से बात होती है.. और फिर वो वहाँ तक आने का रास्ता बताते है.. कौन सी नम्बर का बस पकड़ना है और कहाँ उतरना है सो।..
यहाँ मुम्बई में ईस्ट-वेस्ट का बड़ा लफड़ा रहता है। .. किसी तरह पूछते-पाछते पहली बार किसी लोकल ट्रेन की ओर बढ़ा.. रे बाबा !!! … इतनी ठुस्सम-ठास भीड़ … मैया गे!! … किसी तरह अंदर घुस गए.. साला साँस लेने में तकलीफ़.. ऊपर से मेरा बड़ा वाला बैग।.. साला उस टाइम लग रहा था काहे खातिर इतना बड़ा बैग ले के आया बे!.. साला अपने को संभालूँ या इस बैग को! .. किसी तरह साँस थाम के गोरेगांव तक पहुँचा .. जैसे ही उतरने को आया.. ले भारी भीड़!.. उतरने के पहले ही चढ़ने लगी.. मैं बीच में फंस गया.. और फिर तब तक लोकल भी चल पड़ी.. एक सुधी जन ने पूछा ‘गोरेगांव में उतरना था क्या ?’ मैं बोला ‘हाँ’ .. ‘तो पहले से ही दरवाजे के सामने आने को मांगता न .. सोचोगे कि ट्रेन रुकेगी तब आराम से उतरोगे तो कभी नहीं उतर पाओगे और खास कर के अभी के वक़्त में .. सब के छुट्टी होने का टाइम है ये.. अगला स्टेशन मलाड है.. अभी से दरवाजे के सामने चले जाओ।‘ उनके कहे अनुसार दरवाजे तक गया और मलाड में भारी मशक्कत के बाद ट्रेन से उतरा.. ऐसे फील हो रहा था जैसे कोई युद्ध जीत लिया हो! .. अब मेरी हिम्मत नहीं रह गई थी कि दुबारा लोकल से वापिस गोरेगांव जाऊँ..साला पता नहीं फिर दादर में न उतरना पड़ जाय।.. ऑटो पकड़ा और गोरेगांव आया। .. और फिर वहाँ दादा के कहे अनुसार अमुक नम्बर का बस पकड़ा और गन्तव्य तक पहुँचा।  .
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खैर अब तक बकैती कर रहा था… :)
लेकिन अब आता हूँ असल मुद्दे पे..
मुझे नहीं पता था ये लोग कहाँ रहते हैं और कैसे रहते हैं ?
जिस तरह से बम्बईया हीरो लोग अपनी गुणगान बाँचते थे गाँव में.. अपना स्टेटस दिखाते थे.. उससे एक अलग किसिम का छवि बन गया था.. उसी छवि को लिए हमारी आँखें उसे ढूंढ़ रही थी.. बस में खिड़की किनारे बैठा था.. शहर के नज़ारे दिख रहे थे.. ये चमचमाता शहर.. ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें.. भारी बिजी लोग-बाग़ और ट्रैफिक की भीड़ें.. मेरा गन्तव्य था गोरेगांव फ़िल्मसिटी, मयूरनगर।.. मयूर नगर में उतरा तो देखा कि बहुत बड़ी-बड़ी इमारतों का समूह.. हमने फोन लगाया भैया को.. ‘दादा हम मयूरनगर पहुँच गए है’ .. ‘ठीक है तुम वहीँ रुको हम आ रहे है’ … मैं सोच रहा था भैया ई बिल्डिंग के गेट में से ही बाहर आएंगे.. मैं टकटकी लगाए उस गेट के तरफ ही देख रहा था.. करीब दस मिनट बाद भैया का फोन आया ‘कहाँ हो बाबू ?’ .. मैं ‘यहाँ एक चाय की दूकान है न वहाँ’ .. ‘हाँ ठीक.. देख लिए।‘
फिर भैया आये और बैग उठा लिए और बोले चलो .. मैं सोचा बिल्डिंग की तरफ चलना है लेकिन वो तो बिल्डिंग के बाउंड्री के बगल में से ले जाना शुरू किये! .. एक अजीब सा अनुभव.. पहली बार.. ऐ संकरी-संकरी गलियां और बदबूदार बास.. नाक सिकोड़ गई.. टीनेँ और केरकेट से बनी झोपड़े.. मैं पूछ बैठा ‘दादा ई तो स्लम्स जैसा कुछ लगता हैं!’
‘हाँ स्लम्स ही है.. लेकिन बम्बईया भाषा में इसे चाल या फिर झुग्गी कहते हैं’
खैर तब भी रहा और आज भी जाते रहता हूँ.. इसी तरह अपने तरफ के लगभग सभी बम्बईया हीरो के ठिकानों पे जाता रहता हूँ।.. कल्याण,डोम्बिवली,थाने, घाटकोपर, अँधेरी,गोरेगांव,मलाड.. डॉट..डॉट जगहों पे आना जाना लगा रहता हैं।… मेरे भैया लोग गोरेगांव फ़िल्म-सिटी में काम करते हैं.. बहुत बड़ा एरिया है.. अंदर तमाम तरह की चकाचौंध और मायावी दुनिया.. बड़े-बड़े फ्लोर्स.. लाइट कैमरा सजावट और एक्शन-एक्शन,कट-कट की गूंजती आवाजें!.. एक अलग ही दुनिया… बेहद ही खूबसूरत..  लेकिन फ़िल्म-सिटी के बाउंड्री के बाहर की दुनिया?.. टोटली डिफरेंट!! .. लगता कि जैसे अर्श से लाकर फर्श पे पटक दिया हो.. बाउंड्री के बाहर बड़ी बिल्डिंगें हैं तो उससे कहीं जादा झुग्गी-झोपड़ियां.. और इन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के चलते ही फ़िल्म-इंडस्ट्री रन करती है, कर रही है.. ईंधन यही लोग हैं.. लेकिन इनकी जिंदगी!?
हम इससे पहले कहीं भी रूम देखने जाते थे तो सबसे पहले पानी और लेट्रिन की व्यवस्था देखते थे.. लेकिन यहाँ ? .. 4000-5000 रुपया रूम-रेंट देते हैं लेकिन इन सब का बड़ा तकलीफ़।.. पानी के तो क्या कहने .. एक छोटा सा रूम है.. एक कोने में बर्तन माँजने की जगह जिसे ‘मोरी’ कहते है.. इस मोरी में नहायेंगे,बर्तन धोएंगे और सुसु भी !.. आधा रूम केवल पानी के डब्बों और ड्रम से भरे हुए होते हैं.. सुबह होते ही नल के सामने ऐ लम्बी डब्बों की कतार.. सब जल्दी में.. हड़बड़-हड़बड़,केचर-केचर.. मोरी में नहाने बैठो तो सावधान! .. जादा छटपटाने का नहीं.. वैसे आपके हाथों को उतनी आजादी भी नहीं मिलेगी.. हाथ फ़ैलाने चाहो तो मोरी की दीवारें रोक लेगी.. चोट भी लग सकती है(मुझे लगी है बहुत बार).. और ज़रा छटपटाना चाहो तो साबुन और शैम्पू की झाग बगल में उबल रही दाल या फिर सब्जी में भी जा के गिर सकती है!! .. दो नम्बर के लिए सुलभ शौचालय के बाहर ये लम्बी कतारें! लोग हाथ में डब्बे ले किसी तरह अपने को कण्ट्रोल करते आराम से दिखते हैं! ..  तो कुछ हाथ में डब्बा लिए झाड़ियों की ओर चल देते हैं.. कुछ नहीं बहुत कोई.. सामने ‘लापतागंज’ का सेट लगा हुआ है और उसके नीचे हर कोई बीड़ी सिगरेट फूंकते हुए हल्का हो रहा हैं। इतनी बदबूदार जगह की क्या बताया जाय! .. ये सब देख के राज ठाकरे का वो ब्यान ध्यान में आता ‘डेंगू मलेरिया फैलनी वाली बात!’। .. और बात सही भी है.. अभी के महीनों में सबसे जादा डेंगू-मलेरिया के शिकायत इन्हीं इलाकों में से आते हैं। .. इतनी तंग जगहें की क्या बताया जाय! .. जहाँ एक कमरे में ठीक से दो जन न रह पाये वहाँ 7-8 जन रहते हैं! मैं अपने घर का उस हिसाब से अनुमान लगाऊँ तो मेरे घर में आराम से 150 आदमी रह सकते हैं।.. लेकिन फिर भी रहने को मज़बूर हैं.. जादा स्टैण्डरी दिखाएंगे तो फिर पैसे कहाँ बचाएंगे.. जितना भी स्टैण्डरी दिखाना है वो गाँव जा के दिखाएंगे। .. दिन भर शूटिंग में बिजी रहते हैं.. सुबह के आठ बजे निकलेंगे तो रात को पता नहीं कितने बजे तक आएंगे.. हालाँकि इन्हें भी ऑवरटाइम की पड़ी रहती हैं।.. जितना ऑवरटाइम उतने जादे पैसे।.. बड़े बजट की फ़िल्म से लेकर सीरियल्स और ऐड फ़िल्म तक .. कौन हीरो कौन हीरोइन कौन डायरेक्टर.. इन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, बस काम मिलना चाहिए.. वही लाइट कैमरा और पेंटिंग सेंटिंग.. और उन्हीं लाइट कैमरों में खोये हुए तमाम एक्टर्स और डायरेक्टर्स.. लेकिन फ़िल्म-सिटी की चाहरदिवारी के बाहर उतनी ही धुंधली और अँधेरी।.. जिनकी पसीने और मेहनत से फ़िल्म इंडस्ट्री इतनी चमकती दमकती दिखाई देती है उनकी गलियों में ये एक्टर एक दिन भी बीता ले न तो अगले दस दिन तक शूटिंग में न आ पायेंगे ये मैं गारन्टी के साथ कहता हूँ।
लाखों ऐसे लोग हैं जिनके बदौलत ये मुम्बई चमक रही है। दुनिया में अगर बॉलीवुड है तो इन झुग्गीवालों के चलते ही है।..
और भी बहुत सारी बातें है .. लेकिन फिर कभी। :)
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गंगा महतो
खोपोली

Thursday, August 11, 2016

||ललखंडिया||

||ललखंडिया||

मैं गंगा महतो, भारत गणराज्य के झारखण्ड प्रदेश का निवासी। झारखण्ड देश के सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्यों में से एक है। तो मैं झारखण्ड राज्य के बोकारो जिलान्तर्गत नावाडीह प्रखंडाधिन मँझलीटांड़ गाँव का निवासी हूँ। बोकारो झारखण्ड के सबसे समृद्ध जिलों में से टॉप की गिनती में आता है, स्टील सिटी के साथ-साथ नॉलेज सिटी के भी नाम से जाना जाता है। 50 के दशक में SAIL की स्थापना होती है और उसके साथ-साथ तीन-चार पावर प्लांट्स की भी .. बोकारो सिटी से हमारा गाँव महज 30-35 किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन हमारे गाँव तक बिजली आते-आते 50 साल से भी ऊपर का समय ले लेती है। .. हमारा गाँव जंगलों के बीच में बसा हुआ गाँव है.. मेरे गाँव से 12-15 किलोमीटर दूर ‘ऊपरघाट’ के गाँव सब… एक अजीब सा माहौल .. ऐसा माहौल कि बोकारो के सबसे संवेदनशील इलाकों में से एक.. पुलिस भी उधर जाने से पहले हज़ार बार सोचती हैं। .. कारण कि ‘ललखंडिया’ बेल्ट का होना.. अपने इधर नक्सलस को ललखंडिया कहते हैं.. ललखंडिया मने लाल सलाम वाले। प्रशासन के साथ-साथ एक आम जन के लिए भी एक अलग सा डर… लेकिन फिर भी हमलोग और उन गांवों के साथ अच्छे सम्बन्ध है.. हमारे ही जात-बिरादर वाले सब हैं.. शादी-ब्याह और रिश्तेदारी भी खूब होती हैं।.. मेरी मौसी का घर खुद ऊपरघाट हैं। .. लेकिन आने-जाने में डर लगा रहता था… शाम के बाद तो कतई नहीं.. उधर के रिश्तेदार और दोस्त सब भी खूब न्यूज़ सुनाते रहते थे ललखंडियों को ले के।
रात को गश्त लगाते-लगाते किसी के भी घर में घुस पड़ेंगे और भरी नींद से उठा के खाना बनवायेंगे.. मना तो कर नहीं सकते, जान से हाथ धोना थोड़े है! खाएंगे पीयेंगे और धन्यवाद तक नहीं बोलेंगे।.. नक्सलियों को गरीब-शोषित की आवाज बताएँगे लेकिन वास्तव में कोई पसंद नहीं करता। .. लेकिन कभी पुलिस करवाई में भी निर्दोष लोग हत्थे चढ़ जाते.. और यही गलती लोगों का पुलिस के प्रति गुस्सा फूटता है और इसका लाभ नक्सली लोग उठाते हैं।.. एक बार मेरे गाँव का आदमी नाम भक्तु महतो जिसका कि वहाँ फूफा घर था, गया था रिश्तेदारी में! .. उसी दौरान पुलिस का छापा पड़ जाता है.. गाँव के सारे मर्द गायब थे केवल बुजुर्गों को छोड़ के.. अब चूँकि वो वहाँ का मेहमान था तो उसको कहाँ छुपाये ? उसकी बुआ ने एक कमरे में बन्द करके बाहर से ताला जड़ दिया… जब वहाँ पुलिस पहुँची तो जबरदस्ती ताला खोल के अंदर घुसी और उसको गिरफ्तार कर ली। .. अब पुलिस ने जो भक्तु महतो का जो टॉर्चर शुरू किया कि क्या कहा जाय ! घर की महिलाएं कितना समझाई कि ये इस गाँव का नहीं है.. मेहमानी में यहाँ आया था.. हमलोग ने डर के मारे कमरे में बन्द कर दिया था.. लेकिन पुलिस ने एक न सुनी.. उसको इतना मारा गया इतना मारा गया कि कस्टडी में पाँच बार बेहोश हो गया.. उससे नक्सलियों के ठिकानों का पता पूछते .. उसको रात-रात भर पेट्रोलिंग में ले के जाते और ठिकाने का पता पूछते, और न बता पाने की स्तिथि में जम के पिटाई करते। . अब भक्तु महतो को कुछ पता होता तब तो वो कुछ बताता… बहुत टॉर्चर के बाद भी जब कुछ हाथ न लगा तो अंत में थक हार के ओरिजिनल पता अड्रेस पूछ के गाँव के लोगों और उसके माँ-बाप को बुलाया गया और पहचान हो जाने के बाद छोड़ा गया.. भक्तु महतो उस पिटाई के कारण बेड से महीना भर तक उठ नहीं पाया था.. और इसी तरह न जाने कितने भक्तु महतो होते हैं जो पुलिस की मार बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं और कस्टडी में ही दम तोड़ देते हैं।
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ये हो गया एक पक्ष …
अब दूसरे पक्ष की एक वास्तविक घटना सुनाता हूँ..
सन् 2001-02 … झारखण्ड जस्ट अलग हुआ था… बाबूलाल मरांडी जी मुख्यमंत्री थे.. हम नावाडीह के मिडिल स्कूल में 8वीं कक्षा में पढ़ रहे थे .. भूषण हाई स्कूल के मैदान में नक्सलियों का ‘आत्म-समर्पण’ समारोह चल रहा था.. तो हमलोगों को स्कूल से छुट्टी दे दिया गया उस समारोह में शामिल होने के लिए… मुख्यमंत्री जी हेलीकोप्टर से आये और समारोह शुरू हुआ… भव्य नाट्य-मंचन भी हुआ नक्सली जीवन को ले के.. फिर उसके बाद आत्म-समर्पण का कार्यक्रम … उस समारोह में करीब डेढ़ सौ से ज्यादा नक्सलियों ने आत्म-समर्पण किया था.. सबको मुख्यमंत्री जी के तरफ से तौलिया और फूल माला से सम्मानित किया जा रहा था.. कुछ राशि और जमीन भी सरकार की तरफ से दिया जा रहा था।.. मुख्यमंत्री जी ने अन्य लोगों से भी मुख्य धारा में शामिल होने का सन्देश दिया।..  खैर समारोह शांतिपूर्वक सम्पन्न हुआ। … कहीं कुछ गड़बड़ सड़बड़ नहीं.. सब अच्छे से चल रहा था.. फिर एक दिन समाचार पत्र में आया कि ‘आत्म-समर्पण किये गए पुर्व नक्सली की निर्मम हत्या।“ … अब खबरीय भाषा कैसी होती है वो तो आप जानते ही होंगे।.. लेकिन  एक दिन उसी गाँव की एक औरत मेरे घर आई.. और उस घटना के बारे में बताने लगी..
“यही कोई रात के ग्यारह साढ़े ग्यारह बज रहे थे… सब कोई बियारी(डिनर) खा के सो गए थे… तभी आँगन के टाटी के खड़खड़ाने की आवाज आती है…  और साथ में फलन दा ओ फलन दा करके आवाज… फलन महतो घर का हुड़कु खोल के निकलता है और टाटी खोलता है .. देखता है कि एक पूरी बटालियन नक्सलियों की खड़ी थी.. एक दूसरे को लाल-सलाम करते हैं और घर के आँगन में आते है.. फलन महतो खटिया निकाल सबको बिठाता हैं।.. फिर उसका जो कमांडर रहता है वो फलन महतो से बोलता है “का फलन दा .. सुने है सरकार की तरफ से बहुत पैसा मिला है ! … कुछो खिलाइयेगा-पिलाइयेगा नहीं ? .. कि बस ऐसे ही खटिया पे बिठा के रखोगे ? “
“अरे ऐसे कैसे बात करते है.. काहे नहीं खिलाएंगे पिलाएंगे !”
“हाँ तो फिर खिलाइये… खस्सी भात से कम नहीं चलेगा फलन दा.. बताय दे रहे है।“
“अरे काहे नहीं… आप रुकिए.. अभिये खस्सी काटते है।“
घर के अंदर जा अपनी बीवी और माँ को जगाता है और मसाला,प्याज,लहसुन,मेर्चाय आदि तैयार करने को बोल देता है… गोहाल से खस्सी निकाला जाता है काटा जाता है.. भात बनाया जाता है… मीट बन के तैयार हो जाता है.. अब खाने की बारी आती है.. तो कमांडर बोलता है “फलन दा.. पहले आप खाओ … और सब परिवार वालों के साथ मिल के खाओ.. फिर हम खाएंगे।“
“अरे ऐसे काहे बोल रहे है… सब मिल के ही खाते है !”
“अरे बोल रहे है न .. पहले तुम लोग खाओ।“
तो फलन महतो चुपचाप अपने परिवार के साथ मिलकर पाँत में बैठ जाता है.. फिर वो कमांडर ही भात और मीट परोसता है.. फिर सभी खाने लगते है.. पहला पोरसन जब खत्म होने को आता तो कमाण्डर भात और मीट ले के पत्तल में डालने आता है तो फलन महतो मना करता है “अरे नहीं.. अब बस हो गया.. बहुत खा लिया.. “
‘’ अरे खा लो खा लो फलन दा… आखरी बार जो खा रहे हो.. फिर कभी शिकायत मत करना कि हमने तुम्हें जम के खाना नहीं खिलाया!”
इतना सुनते ही फलन महतो के होश उड़ जाते है… एकदम से हकलाते कंपकंपाते हुए बोलता है ..
“कक्क्…क्क्क्..कहना क्या चाहते हो कमांडर ??”
“अरे कुछ नहीं बस तुम खाना खाओ “
फलन महतो का तो जैसे भूख ही गायब हो गया .. बोला “अब मेरा पेट भर गया.. अब आप लोग खाइये !”
फिर वह डरे सहमे अपने परिवार के साथ मिल सबको खाना खिलाता हैं।
खाना खाने के बाद कमांडर बोलता है..
“बहुत बढ़िया खाना था फलन दा… चलिए फिर ठीक है अब हमलोग चलते हैं।“
“हाँ ठीक”
“अरे गाँव के कुलमुड़वा तक नहीं छोड़ के आओगे ?”
“अरे काहे नहीं.. चलो चलते है !!”
जब सब आँगन से निकलने लगते है तो कमाण्डर फलन महतो की बीवी से बोलता है ..
“ऐ भौजी…. दादा के तो ले जाय रहल हियो.. लेकिन अब कभी ऐतो नाय… तो अच्छा रहतो कि आपन माँग कर सिंदूर आभिये से पोइछ लो।“
इतने में फलन महतो की बूढ़ी माँ बोलती है..
“ऐ~~ ऐ~~ बेटा की बोईल रहे हो बेटा… हमर बेटा के कहाँ ले के जाय रहल ही बेटा की जे कभी ऐते नाय ?”
“ऐ काकी तोहू आपन क्रिया-क्रम खातिर दोसर बेटा देख लेना… अब तोहर ई बेटा वापिस नाय आई !”
“ऐ बेटा .. अइसन कोनो उल्टा सीधा नाय करो बेटा.. दू गो बेटी छौवा आर एक गो बेटा है बेटा.. बेटी सब कुंवारे है बेटा… अइसन कोनो गलत-सलत नाही करना बेटा .. ऐ बेटा.. इ एक बूढ़ी माय के प्रार्थना हो बेटा.. ऐ बेटा ~~”
ये कहते-कहते उसकी माँ उसके पैरों में गिर जाती है..
इतने में फलन महतो की बीवी भी दौड़ के आती है और कमांडर के पैरों में गिर जाती है और पैर पकड़ लेती है.. और रोते-गिड़गिड़ाते हुए कहने लगती है “ ऐ हो !! .. अइसन कुछो नाय करिहौ हो.. छोटे-छोटे बाल-बुतरू हथिन गो.. के सँभालते एखनी के गो.. छोइड़ द एकरा के गो.. एकर खातिर तोहे जेटा बोलबा.. उटा करे के तैयार हियो गो.. लेकिन एकरा के कोनो नाय करिहा गो !”
“ऐ भौजी… तो ई बतिया फलन दा सरकार से पैसा लेते हुए काहे नहीं सोचा था.. सरकार जम के पैसा दिया है तो उससे बाल-बच्चों को पढ़ाओ लिखाओ .. अब फलन महतो का का ज़रूरत !”
बूढ़ी माँ, बीवी और उसके रोते-बिलखते बच्चे सब कोई गिड़गिड़ाने लगते हैं .. लेकिन कोई नहीं सुनने वाला.. सबको घर में बंद कर बाहर से सिकरी लगा दिया जाता है… सभी जन अंदर दहाड़ मार-मार के रोने लगते हैं.. पूरा गाँव जग जाता हैं.. लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती कि घर का हुड़कु खोल के बाहर आ सके !
नक्सली फलन महतो को गाँव के कुलमुड़वा में ला के उसका सर एक चट्टान में रख कर उसके सर के ऊपर एक बड़ा सा पत्थर उठा के पटक देते है।
कितनी वीभत्स और निर्मम मौत होगी आप केवल कल्पना कर सकते हो.. मेरी बड़ी माँ की तो उलटी हो गई थी.. मैं एकदम से सिहर गया था.. मेरी माँ और अन्य औरतों के आँखों में आँसू थे।.. पता नहीं फलन महतो का परिवार उस घड़ी को कैसे झेल पाया होगा, जब वो बेरहमी से कुचले हुए सिर के समीप गए होंगे..  हम तो उस स्तिथि की मात्र कल्पना भर से ही हमारी रूँह काँप उठती है।
उस घटना के बाद से कोई भी उस एरिया में आत्म-समर्पण का मामला नहीं सुना।
जहाँ नक्सलियों को गरीबों सताये हुए लोगों की आवाज माना जाता हैं, वहीँ इसका दूसरा चेहरा ये भी है.. आपका उस दलदल में तो जाना बहुत ही आसान है, लेकिन निकलना बहुत ही मुश्किल.. मुख्य-धारा में कोई आना भी चाहता है तो उसे फलन महतो जैसा मौत प्राप्त होता हैं।
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गंगा महतो
खोपोली