बम्बई नगरी ! ... ये शब्द ही बहुत कुछ कहती है … कितने किताब, उपन्यास,नाटक,फ़िल्म इसपे बन चुके हैं.. बन रहे हैं.. रोज दसियों पत्र-पत्रिकाएं और अखबार छपते हैं इसके नाम से.. भारत की आर्थिक राजधानी! … कुछ दिन पहले यूट्यूब पे एक वीडियो देख रहा था.. उसमें एक जन अमेरिका में अमेरिकियों से पूछता है कि “यदि मैं इंडिया बोलूँ तो सबसे पहले आपके मन में क्या आता है ?” .. तो अधिकतर के ज़वाब थे “ इंडिया मने ताजमहल” .. फिर था “इंडिया मने बॉलीवूड” फिर था “इंडिया मने स्लम्स” तो कुछेक के ज़वाब थे यहाँ के ‘मसालेदार खाना’! .. खैर विदेशियों के मन में भारत मने बॉलीवुड .. वहीँ अगर हम भारतीयों की बात करे तो महाराष्ट्र मने मुम्बई और मुम्बई मने बॉलीवुड!! और बॉलीवुड के कारण आमची चमचमाती मुम्बई! .. मुम्बई को जितना जाना था वो केवल किस्से-कहानियों, फिल्मों और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही। .. गाँव में जब भी कोई बम्बईया हीरो आता था न तो हम उसको घेर के बैठ जाते थे.. और फिर जो वो लम्बी-लम्बी फेंकता था, उसमें हम बस बहते चले जाते थे।.. उसकी बातों को इतनी तल्लीनता से सुनते कि उसके शब्दों के साथ-साथ में मुम्बई में प्रविष्ट में जाते थे और बस यही चाहते थे कि तुम बस सुनाते जाओ सुनाते जाओ बम्बई की कहानियाँ और हम बम्बई से बाहर निकले ही नहीं। हीरो-हीरोईन की बातों का तो क्या कहना.. खोद-खोद के पूछते थे..और वो भी तेल मसाले कम नहीं लगाते थे .. बम्बईया हीरो सब का चाल-चलन, पहनावा और बोली अन्य लड़कों से अलग कर देती थी.. लड़कियां चुम्बक की भांति खींची चली आती उसकी तरफ.. तो हमरे मन में भी यही ख्याल आता था कि साला हम कब जाये बम्बई ? .. खैर तब तो हम न आ पाये.. गाँव से पहली बार बाहर निकले तो हजारीबाग के लिए। फिर बोकारो.. कुछ दिन राँची और फिर उसके बाद नागपुर। .. जब भी नागपुर से गाँव जाता तो सब यही पूछते ‘बम्बई से कब आया.. कुछ सुनाओ बम्बई के बारे में !’ .. फिर हम समझाते ‘अरे हम बम्बई में नहीं रहते है.. नागपुर में रहते है.. बम्बई बहुत दूर है नागपुर से।‘ .. लेकिन मन में था कि कभी बम्बई भी जाये।.. खैर ये कामना पूरी हुई.. आज से यही ठीक चार साल पहले.. अगस्त 2012 .. जब हम मुम्बई में कदम रखे.. अकेले आये थे.. कोई आईडिया नहीं था इस शहर के बारे में.. बस भूषण स्टील के कुछ जनों का कॉन्टेक्ट नम्बर था.. हालाँकि मेरे गाँव के बहुत सारे बम्बईया हीरो रहते थे लेकिन किसी का नम्बर नहीं था।.. शाम-शाम को उतरे रहे दादर स्टेशन में।.. जैसे ही ट्रेन से बाहर आया , रे बाबा !!! .. इत्ता भीड़ !! .. माय कसम एतना भीड़ तो हम भेण्डरा मेला में भी नहीं देखे थे.. पहली बार इस तरह की भीड़ से पाला पड़ा था।.. ले दन दन दन चले पड़े हैं.. किसी के पास कोई टाइम नहीं… सब जल्दी में हैं.. इतने में कोई लॉकल आती है दूसरे प्लेटफॉर्म पे… ले धड़ धड़ धड़.. धप धप धप करते दौड़ते लोग.. लगा कि साला कहीं ब्रीजे न टूट जाय!.. मुझे दो-तीन जन धक्के मारते हुए पास हुए.. मैं बड़ी मुश्किल से किनारे पे आया।.. यहाँ पे एक अजीब सा देखा.. लोग अमूमन बैग पीठ पे ले के चलते हैं लेकिन यहाँ बैग को छाती और पेट के बल पे ले के चलते हैं।.. किसी से कुछ पूछो तो जल्दी-जल्दी में ही क्या-क्या बोलता कुछ पल्ले ही पड़ता.. मैं ऑवरब्रिज में खड़ा ही था कि भैया का फोन आया ..
“अरे पहुँच गया ?”
“हाँ दा.. अभी जस्ट उतरे है”
“कहाँ हो अभी ?”
“दादर में”
“अभी खोपोली को निकलोगे कि कहाँ रहोगे ?”
“नहीं अब अभी नहीं निकलूंगा.. यहीं कहीं होटल में रुक लूंगा।“
“अरे होटल में काहे रुकेगा ! … गोरेगांव में बड़का दादा (मौसी का लड़का) रहता है.. वहीँ पे चले जाओ.. दादर से 20-25 मिनट लगता है लोकल से!”
“ठीक है.. फिर उनका नम्बर दे दीजिये”
भैया नम्बर देते है.. मैं फोन लगाता हूँ.. दादा से बात होती है.. और फिर वो वहाँ तक आने का रास्ता बताते है.. कौन सी नम्बर का बस पकड़ना है और कहाँ उतरना है सो।..
यहाँ मुम्बई में ईस्ट-वेस्ट का बड़ा लफड़ा रहता है। .. किसी तरह पूछते-पाछते पहली बार किसी लोकल ट्रेन की ओर बढ़ा.. रे बाबा !!! … इतनी ठुस्सम-ठास भीड़ … मैया गे!! … किसी तरह अंदर घुस गए.. साला साँस लेने में तकलीफ़.. ऊपर से मेरा बड़ा वाला बैग।.. साला उस टाइम लग रहा था काहे खातिर इतना बड़ा बैग ले के आया बे!.. साला अपने को संभालूँ या इस बैग को! .. किसी तरह साँस थाम के गोरेगांव तक पहुँचा .. जैसे ही उतरने को आया.. ले भारी भीड़!.. उतरने के पहले ही चढ़ने लगी.. मैं बीच में फंस गया.. और फिर तब तक लोकल भी चल पड़ी.. एक सुधी जन ने पूछा ‘गोरेगांव में उतरना था क्या ?’ मैं बोला ‘हाँ’ .. ‘तो पहले से ही दरवाजे के सामने आने को मांगता न .. सोचोगे कि ट्रेन रुकेगी तब आराम से उतरोगे तो कभी नहीं उतर पाओगे और खास कर के अभी के वक़्त में .. सब के छुट्टी होने का टाइम है ये.. अगला स्टेशन मलाड है.. अभी से दरवाजे के सामने चले जाओ।‘ उनके कहे अनुसार दरवाजे तक गया और मलाड में भारी मशक्कत के बाद ट्रेन से उतरा.. ऐसे फील हो रहा था जैसे कोई युद्ध जीत लिया हो! .. अब मेरी हिम्मत नहीं रह गई थी कि दुबारा लोकल से वापिस गोरेगांव जाऊँ..साला पता नहीं फिर दादर में न उतरना पड़ जाय।.. ऑटो पकड़ा और गोरेगांव आया। .. और फिर वहाँ दादा के कहे अनुसार अमुक नम्बर का बस पकड़ा और गन्तव्य तक पहुँचा। .
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खैर अब तक बकैती कर रहा था… :)
लेकिन अब आता हूँ असल मुद्दे पे..
मुझे नहीं पता था ये लोग कहाँ रहते हैं और कैसे रहते हैं ?
जिस तरह से बम्बईया हीरो लोग अपनी गुणगान बाँचते थे गाँव में.. अपना स्टेटस दिखाते थे.. उससे एक अलग किसिम का छवि बन गया था.. उसी छवि को लिए हमारी आँखें उसे ढूंढ़ रही थी.. बस में खिड़की किनारे बैठा था.. शहर के नज़ारे दिख रहे थे.. ये चमचमाता शहर.. ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें.. भारी बिजी लोग-बाग़ और ट्रैफिक की भीड़ें.. मेरा गन्तव्य था गोरेगांव फ़िल्मसिटी, मयूरनगर।.. मयूर नगर में उतरा तो देखा कि बहुत बड़ी-बड़ी इमारतों का समूह.. हमने फोन लगाया भैया को.. ‘दादा हम मयूरनगर पहुँच गए है’ .. ‘ठीक है तुम वहीँ रुको हम आ रहे है’ … मैं सोच रहा था भैया ई बिल्डिंग के गेट में से ही बाहर आएंगे.. मैं टकटकी लगाए उस गेट के तरफ ही देख रहा था.. करीब दस मिनट बाद भैया का फोन आया ‘कहाँ हो बाबू ?’ .. मैं ‘यहाँ एक चाय की दूकान है न वहाँ’ .. ‘हाँ ठीक.. देख लिए।‘
फिर भैया आये और बैग उठा लिए और बोले चलो .. मैं सोचा बिल्डिंग की तरफ चलना है लेकिन वो तो बिल्डिंग के बाउंड्री के बगल में से ले जाना शुरू किये! .. एक अजीब सा अनुभव.. पहली बार.. ऐ संकरी-संकरी गलियां और बदबूदार बास.. नाक सिकोड़ गई.. टीनेँ और केरकेट से बनी झोपड़े.. मैं पूछ बैठा ‘दादा ई तो स्लम्स जैसा कुछ लगता हैं!’
‘हाँ स्लम्स ही है.. लेकिन बम्बईया भाषा में इसे चाल या फिर झुग्गी कहते हैं’
खैर तब भी रहा और आज भी जाते रहता हूँ.. इसी तरह अपने तरफ के लगभग सभी बम्बईया हीरो के ठिकानों पे जाता रहता हूँ।.. कल्याण,डोम्बिवली,थाने, घाटकोपर, अँधेरी,गोरेगांव,मलाड.. डॉट..डॉट जगहों पे आना जाना लगा रहता हैं।… मेरे भैया लोग गोरेगांव फ़िल्म-सिटी में काम करते हैं.. बहुत बड़ा एरिया है.. अंदर तमाम तरह की चकाचौंध और मायावी दुनिया.. बड़े-बड़े फ्लोर्स.. लाइट कैमरा सजावट और एक्शन-एक्शन,कट-कट की गूंजती आवाजें!.. एक अलग ही दुनिया… बेहद ही खूबसूरत.. लेकिन फ़िल्म-सिटी के बाउंड्री के बाहर की दुनिया?.. टोटली डिफरेंट!! .. लगता कि जैसे अर्श से लाकर फर्श पे पटक दिया हो.. बाउंड्री के बाहर बड़ी बिल्डिंगें हैं तो उससे कहीं जादा झुग्गी-झोपड़ियां.. और इन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के चलते ही फ़िल्म-इंडस्ट्री रन करती है, कर रही है.. ईंधन यही लोग हैं.. लेकिन इनकी जिंदगी!?
हम इससे पहले कहीं भी रूम देखने जाते थे तो सबसे पहले पानी और लेट्रिन की व्यवस्था देखते थे.. लेकिन यहाँ ? .. 4000-5000 रुपया रूम-रेंट देते हैं लेकिन इन सब का बड़ा तकलीफ़।.. पानी के तो क्या कहने .. एक छोटा सा रूम है.. एक कोने में बर्तन माँजने की जगह जिसे ‘मोरी’ कहते है.. इस मोरी में नहायेंगे,बर्तन धोएंगे और सुसु भी !.. आधा रूम केवल पानी के डब्बों और ड्रम से भरे हुए होते हैं.. सुबह होते ही नल के सामने ऐ लम्बी डब्बों की कतार.. सब जल्दी में.. हड़बड़-हड़बड़,केचर-केचर.. मोरी में नहाने बैठो तो सावधान! .. जादा छटपटाने का नहीं.. वैसे आपके हाथों को उतनी आजादी भी नहीं मिलेगी.. हाथ फ़ैलाने चाहो तो मोरी की दीवारें रोक लेगी.. चोट भी लग सकती है(मुझे लगी है बहुत बार).. और ज़रा छटपटाना चाहो तो साबुन और शैम्पू की झाग बगल में उबल रही दाल या फिर सब्जी में भी जा के गिर सकती है!! .. दो नम्बर के लिए सुलभ शौचालय के बाहर ये लम्बी कतारें! लोग हाथ में डब्बे ले किसी तरह अपने को कण्ट्रोल करते आराम से दिखते हैं! .. तो कुछ हाथ में डब्बा लिए झाड़ियों की ओर चल देते हैं.. कुछ नहीं बहुत कोई.. सामने ‘लापतागंज’ का सेट लगा हुआ है और उसके नीचे हर कोई बीड़ी सिगरेट फूंकते हुए हल्का हो रहा हैं। इतनी बदबूदार जगह की क्या बताया जाय! .. ये सब देख के राज ठाकरे का वो ब्यान ध्यान में आता ‘डेंगू मलेरिया फैलनी वाली बात!’। .. और बात सही भी है.. अभी के महीनों में सबसे जादा डेंगू-मलेरिया के शिकायत इन्हीं इलाकों में से आते हैं। .. इतनी तंग जगहें की क्या बताया जाय! .. जहाँ एक कमरे में ठीक से दो जन न रह पाये वहाँ 7-8 जन रहते हैं! मैं अपने घर का उस हिसाब से अनुमान लगाऊँ तो मेरे घर में आराम से 150 आदमी रह सकते हैं।.. लेकिन फिर भी रहने को मज़बूर हैं.. जादा स्टैण्डरी दिखाएंगे तो फिर पैसे कहाँ बचाएंगे.. जितना भी स्टैण्डरी दिखाना है वो गाँव जा के दिखाएंगे। .. दिन भर शूटिंग में बिजी रहते हैं.. सुबह के आठ बजे निकलेंगे तो रात को पता नहीं कितने बजे तक आएंगे.. हालाँकि इन्हें भी ऑवरटाइम की पड़ी रहती हैं।.. जितना ऑवरटाइम उतने जादे पैसे।.. बड़े बजट की फ़िल्म से लेकर सीरियल्स और ऐड फ़िल्म तक .. कौन हीरो कौन हीरोइन कौन डायरेक्टर.. इन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, बस काम मिलना चाहिए.. वही लाइट कैमरा और पेंटिंग सेंटिंग.. और उन्हीं लाइट कैमरों में खोये हुए तमाम एक्टर्स और डायरेक्टर्स.. लेकिन फ़िल्म-सिटी की चाहरदिवारी के बाहर उतनी ही धुंधली और अँधेरी।.. जिनकी पसीने और मेहनत से फ़िल्म इंडस्ट्री इतनी चमकती दमकती दिखाई देती है उनकी गलियों में ये एक्टर एक दिन भी बीता ले न तो अगले दस दिन तक शूटिंग में न आ पायेंगे ये मैं गारन्टी के साथ कहता हूँ।
लाखों ऐसे लोग हैं जिनके बदौलत ये मुम्बई चमक रही है। दुनिया में अगर बॉलीवुड है तो इन झुग्गीवालों के चलते ही है।..
और भी बहुत सारी बातें है .. लेकिन फिर कभी। :)
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गंगा महतो
खोपोली
Saturday, August 13, 2016
||बम्बई||
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