Monday, August 8, 2016

||पढ़ुआ लोग||

||पढ़ुआ लोग||

पढ़ुआ लोग मने पढ़े-लिखे लोग ! .. पढ़े-लिखे लोग मने ‘शिक्षित’ लोग.. शिक्षित के थोड़े और आगे जाइयेगा तो ‘इंटलेक्चुअल्स’ लोग! .. ये इंटेलेक्चुअल्स लोग आम तौर पे घनघोर शहरी क्षेत्रों में पाये जाते हैं, वहीँ शिक्षित लोग गाँव,देहात और कस्बों में। .. अब चूँकि हम गाँव-देहात से बिलोंग करते है तो ‘शिक्षित’ लोग की ही बात करेंगे.. या हम अपने ठेठिया भाषा में बोले तो ‘पढ़ुआ’ लोगों की बात करेंगे।
हमारे इधर पढ़ुआ लोगों का इतिहास जादा पुराना नहीं है… अगर मैं अपने पापा लोगों की पीढ़ी को ‘फर्स्ट जेनेरेशन’ मानूँ तो हमलोग ‘सेकण्ड जेनेरेशन’ वाले, और हमारे से छोटे वाले ‘थर्ड जेनेरेशन’ वाले .. तो अगर फर्स्ट जेनेरेशन वालों की बात करे तो 95 प्रतिशत से जादा लोग अंगूठा छाप मिलेंगे, 4 प्रतिशत पाँचवीं से आठवीं पास और 1 प्रतिशत मेट्रिक पास। .. हमलोग के जेनेरेशन वाले पहले पढ़े-लिखे वाले लोग बन रहे हैं… अब पढ़-लिख तो रहे हैं लेकिन ये पढ़े-लिखे लोग कैसे हैं, इनका व्यवहार कैसा हैं ? इसपे आज एवेरेडी टॉर्च की रौशनी मारते है।

हम गाँव के टँड़िया वाला इस्कुलवा में पढ़ रहे है.. हमरा बप्पा वहाँ 20 रुपया में हमरा एडमिसन करवा दिए है.. आठ साल में हम इस्कूल का मुँह देख रहे है.. इस्कुलवा में पढ़ते-पढ़ते बूढ़ा मास्टर से ‘दू नम्बर’ के बहाने से बाहर  निकलते है और इस्कूल की कुछ दूरी पे महुआ बिछती माँ को मदद करने पहुँच जाते है.. इस्कूल से छुट्टी हुआ तो छेगरी-पठरु ले के पहरी की ओर चल देते है... लेकिन गाँव में कुछ ऐसे भी बच्चे हैं जिनके पप्पा लोग अपने ज़माने के आठवीं पास हैं, नौकरी में हैं और शिक्षा का महत्व समझ रहे हैं, वे गाँव से बहुत दूर धनबाद, गिरिडीह और बोकारो जैसे शहर के नामी गिरामी इस्कूलों के होस्टलों में रहकर पढाई कर रहे हैं। … हम तो गाँव से पाँच किलोमीटर दूर नावाडीह में जा के पढ़ने वालों को भी ऐसे देखते थे जैसे कि वो कोई महान आत्मा के बच्चे हो ! बोकारो, गिरिडीह और धनबाद में रह के पढ़ने वालों बच्चों को तो छोड़ ही दीजिये, कोई अलंकार नहीं मिल रहा उन्हें सुशोभित करने को। .. और हम उन्हें ऐसे देखते नहीं थे बल्कि वो खुद ऐसा दिखाने की कोशिश करते कि हम तुमसे बिलकुल ही अलग है, हम होस्टल वाले हैं और तुम टंड़िया वाला इस्कूल का। … गाँव आते तो इनके पास हम फटकते भी नहीं थे .. एक अलग सा तेज़ रहता था इनके मुख-मंडल में.. कहाँ हमारे कड़ुआ तेल से लीपे-पोते चेहरे और बाल और कान से तेल की निकलती धारा और कहाँ उनकी शैम्पू से फुरफुराते बाल और नहाय वाला साबुन और पाउडर की भीनी-भीनी खुशबू। .. कल तक जो लौंडा हमरे साथ पंचगोटिया गोटी लोका-लोकी खेलता था, कित-कित, छुर,तीर-डंडा खेलता था, काड़ा के ऊपर चढ़ता था, खलिहान में डिंगबाजी देता था वो अब एक साल होस्टल में रहने के बाद ई सब को फ़ालतू मानने लगा हैं, इनके आस-पास फटकना भी अपने इमेज में बट्टा लगना समझने लगा हैं.. घर के द्वार से या फिर छत पे चढ़ के एक अलग ही मनोभाव इन सब चीजों को देखने लगा हैं .. और सबसे बड़ी बात कि वो अब ‘हिंदी’ बोलने लगा है.. उनको पता लग गया कि हिंदी बोलना पढ़ा-लिखा होने की पहली शर्त है, और अगर होस्टल में रहने के बावजूद भी अगर आप ‘खोरठा’ बोलते है तो समझो आपके बाप का पैसा पूरा का पूरा गुड़-गोबर। .. एक बार ऐसे ही हम एक पढ़ुआ लड़के के पास थोड़ी हिम्मत जुटा के गए और पूछे “ की रे मिंटुआ कहिया ऐल्ही रे गिरिडीह से ? “
“कल ही आये है “
“हुवा कौन क्लास में पढ़ो ही ?”
इतने में ही उसका बाप आ धमका.. और मुझे एकदम से डाँटते हुए “आय रे मोदिया .. मेरा मिंटू बाबू को बेरबेंड कर के मानेगा का रे ? … मेरे मिंटू से हिंदी में बात करने का.. अब वो गाँव का मिंटू नहीं रह गया है.. गिरिडीह के हॉस्टल में रह के पढ़ने वाला लड़का है।.. जब हिंदी सीख जाओगे तबे आना हमारे मिंटू से बात करने।“
हम तो साला एकदम से हुड़क गए .. चुपचाप निकल लिए वहाँ से । … वो लौंडे घर के बरंडा में निकल के अंग्रेजी का मंत्रोच्चारण करते रहते थे.. उस टाइम तो हमें मालुम भी नहीं था कि अंग्रेजी करके कोई भाषा भी होती है! जब हम पाँचवीं क्लास में गए तब ABCD सीखे। .. अब लौंडे चूँकि हिंदी में ही सबसे वार्तालाप करते थे तो सामने वाले की भी मज़बूरी हो जाती थी कि वो भी हिंदी में ही बात करें। .. तो उसकी माँ और दादा-दादी सब भी टूटे-फूटे हिंदी में बात करते थे .. उसकी ददिया बोलती थी “ की रे मिंटुआ कंदेय चेल गिया रे .. आभी तो हिये उण्डर रिहा था.. कन्देय भाईग गिया रे !”

लौंडे के बप्पा और रिश्तेदार सब जब अपने लौंडों को हिंदी और अंग्रेजी में पिड़पिडाते देखते थे तो फुले नहीं समाते थे… फूल के कुप्पा हो जाते थे.. हर बैठकी में अपने लौंडों की यशोगान शुरू कर देते “ हम पूरा चैलेंज के साथ बोलते है कि मेरा मिंटुआ जैसा अंग्रेजी पुरे नावाडीह एरिया में कोई नहीं बोलता होगा.. ई मोदिया-फोदिया तो हमर मिंटू के सामने 10 पैसा भी नहीं है!” .. और बात सही भी थी हम और हमारे जैसे लौंडे उसके 10 पैसे के बराबर भी नहीं होते थे, भले ही उसका लौंडा 3री क्लास में हो और हम 6ठी क्लास में, कोई भी मेल-मिलाप नहीं। 
हम जब मेट्रिक पास करके हजारीबाग गए इंटर करने को तो एज उजुअल हम सभी से खोरठा में बात करते थे (जो नहीं समझते थे उससे नहीं), तो हमारे गाँव के एक पढ़ुआ को बहुत बुरा लग गया… वो जब गाँव आया तो पूरे गाँव में ढिंढोरा पीट दिया मेरे नाम का..  मेरे घर में जा के सबको बताया कि “ मोदी हजारीबाग कुछ सीखने गया है कि बस ऐसे ही पैसा बर्बाद करने ? .. जो अपनी भाषा नहीं सुधार सकता है वो भला क्या कुछ पढ़ेगा और सीखेगा ? गाँव में रहता है खोरठा बोलता है तो कोई बात नहीं.. हजारीबाग में जा के खोरठा बोलता है!? .. इससे अच्छा होता कि वो यही झारखण्ड कॉलेज में नाम लिखा लिया होता और यहीं पढता।“
उसके 15 दिन बाद जब मैं गाँव आया तो सब कोई क्लास लेने लगा… ‘क्या झूठ-मुठ में शुकर महतो का पैसा हजारीबाग में वेस्ट कर रहा है, जब तुम भाषा ही नहीं सुधार सकते तो।‘.. लेकिन ये लोग भूल जाते कि भाषण प्रतियोगिता के हमने कितने प्राइज जीते हैं, कितने बार पेपर में नाम आया है.. लेकिन नहीं..।। ये एक नियम सा बन गया कि गाँव से बाहर निकले पढ़ाई को ले के तो भाषा-परिवर्तन होना ही माँगता। … खैर न तो मैं तब सुधरा और न आज सुधरा हूँ। गाँव की सीमा में घुसते ही अंग्रेजी और हिंदी को लम्बी छुट्टी पे भेज देता हूँ।
लेकिन जो पढ़ुआ लोग हैं न वो अब भी वैसे ही है जैसे बचपन में थे.. गाँव की बोली बोलना पढ़ुआ इमेज में बट्टा लगना समझते है। .. पर्व त्यौहार उत्सव हो, वो किसी में भी सम्मिलित नहीं होते है, गर होते भी है तो महज औपचारिकता भर ही बस।… होली, दीवाली,सोहराय, कर्मा, रामनवमी का जुलुस निकालो नटुआ नाच के साथ तो ये पढ़ुआ लोग घर के सामने या छत पर बड़े ही दार्शनिक मुद्रा में खड़े हो के अपने गोद में बच्चे को उठाये हुए जुलुस का केवल नयन सुख लेते हैं, जुलुस का हिस्सा कभी नहीं बनते। जुलुस पास हो जाने के बाद अपने समाज की चिंता करते .. ‘जब तक ये लोग ऐसे ही फ़ालतू में अपना टाइम पास करते रहेंगे, जिंदगी में कुछ भी नहीं कर पाएंगे.. पिछड़े के पिछड़े ही रहेंगे।“
10-15 साल बाद अब कोई नटुआ नहीं खेलने लगा, सोहराय पर्व भी दिनों-दिन खोते जाने लगा तो ये पढ़ुआ लोग लुंगी पहिन के कमरे में बंद हो के कॉपी-कलम उठा के.. लैपटॉप-टैबलेट-फोन उठा के कागज और कीपैड पे नटुआ और सोहराय को बचाने की अथक प्रयास कर रहे हैं।.. जो पढ़ुआ कल तक इसे पिछड़ेपन से जोड़ के देखता था, जिसको इस हाल में पहुंचाने वाले ये खुद हैं वो आज इसे बचाने के लिए मसीहा बने फिर रहे है वो भी केवल कागजों पे।.. और कागजों में इसे बचाते-बचाते शायद इन्हें दो चार अवार्ड भी मिल जाय। .. नटुआ नाच पे रिसर्च करने वाले कल को अपने नाम के आगे ‘डॉ.’ लगाते घूमते फिरते मिल जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।
जो आदमी पढ़-लिख के अपने समाज-समुदाय के भले के लिए सोचे, अपनी लोक संस्कृति और भाषा पे गर्व करना सीखे वो इसके विपरीत ही सोचते है, इन सब चीजों को प्रोत्साहन देने की बजाय पिछड़ेपन से जोड़ के देखते है। जहाँ पढ़ लिख के अपने लोगों के लिए कुछ करना चाहिए वहाँ ये जादा पढ़ुआ बनने के चक्कर में उनसे ही अलग हो बैठते हैं। अपने लोगों में घुलने मिलने में इन्हें इनका ‘स्टेटस’ आड़े आने लगता है।.. पता नहीं कोई बड़का स्टेटस वाले पढ़ुआ के मुँह से ये न सुनने को मिल जाय .. “ फ़ालतू में ये इतना पढ़ा-लिखा.. फलन महतो का पैसा बर्बाद किया।“
और फिर ये अपना स्टेटस मेंटेन करने चक्कर में बन्द कमरे में कैद हो सभ्यता-संस्कृति को बचाने की कवायद में लग जाते हैं।
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जे पढ़ुआ !!
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गंगा महतो
खोपोली।

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