कुछ महीने पुर्व अंडमान के ‘जारवा’ जनजाति के कुछ विडियोज देख रहा था यूट्यूब में.. बहुत ही आदिम जनजाति हैं ये.. अभी करीब 400 के ही आस-पास बचे हुए हैं.. बाहरी दुनिया से इनका कोई भी संपर्क नहीं.. लेकिन हाल-फिलहाल कुछ ने संपर्क करना ज़रूर शुरू किया था.. प्रकृति इन्हें जितना देती हैं उन्हीं में ये सुखी-सम्पन्न हैं। .. सबसे जरुरी बात कि ये कुछ पहनते नहीं हैं केवल माला वगेरह छोड़ के.. और मेरा यही कारण रहा था वो विडियोज देखने का.. फिर इसी क्रम में पता चला कि ये जनजाति तब बहुत चर्चा में आई जब एक अंग्रेज पत्रकार महोदय ने उनके कुछ विडियोज बनाये.. और विडियोज इस तरह के कि जारवा जनजाति की नग्न महिलाओं को नचवाया जा रहा हैं केवल कुछ स्वादिष्ट और लजीज भोजन के बदले.. फोटोज भी खिचवा रहे हैं.. और इस बहाने छेड़खानी भी। .. अब वो नग्न महिलाएं क्या जाने कि ये कपड़े पहने लोग क्या कर रहे हैं? और क्यों कर रहे हैं?
खैर ये छोड़िये.. मैं अपने गाँव की बात बताता हूँ.. अगल-बगल का भी पकड़ लीजिये.. आज से ज्यादा नहीं केवल 25-30 साल पहले और अब में कितना परिवर्तन आया हैं!?
तब टीवी केवल अपवाद ही हुआ करती थी.. रेडियो थे कुछ.. एक तरह से बोला जाय तो ज्यादा कुछ संपर्क नहीं था हमारा बाहरी दुनिया से.. हाँ कमाने-खाने के लिए कुछ जन शहर की ओर पलायन ज़रूर करने लगे थे .. लेकिन हम गाँव के थे तो गाँव के थे.. महिलाएं जंगल जाती थी और जलावन के लिए लकड़ी-काठी काट के लाती थी.. खेतों में काम करती थी.. खैर अब भी कर रही हैं, लेकिन मुख्य बात पे आते हैं.. गाँव में चापानल,कुंआ की सुविधा नहीं थी.. सभी जन गाँव के तालाब में ही नहाने जाते थे.. स्त्री घाट अलग तो थे लेकिन साथ में भी नहा ले तो कोई परेशानी नहीं थी.. महिलाएं/लड़कियां पेटीकोट में नहाये, साड़ी में नहाये.. पुरुष अंडरवियर या गमछे में नहाये.. और सब आमने सामने ही नहा रहे हैं.. अब नहा रहे है तो ये मतलब नहीं कि सब आँख मूँद के नहा रहे हैं.. एक दूसरे की ओर देखना तो आम बात.. लेकिन वो भावना कभी नहीं.. कोई कह भी सकता है कि आप कैसे कह सकते हो कि भावना न उठती हो? .. तो उत्तर यह है कि अगर भावना उठती तो परिणाम भी देखने को ज़रूर मिलते.. लेकिन नहीं। .. महिलाएं कभी-कभी भीगी साड़ी ही शरीर में लपेट के तालाब से घर आती।.. महिलाएं/लड़कियां जंगल जब तब जाती.. समूह में जाती, अकेले भी जाती, कभी भी जाती, बेख़ौफ़ जाती.. और जब जंगल से आती तो घुटने से ऊपर तक साड़ी को बाँध के सिर में बोझा लिए घर आती.. घर में आँगन में सबके सामने स्तन खुला करके बच्चे को स्तनपान कराती.. लेकिन कभी किसी के मन में कोई दुर्भावना नहीं.. क्यों ? .. क्योंकि इन्हें नैसर्गिक तौर पे देखा जाता था न कि सेक्स पार्ट की कसौटी पे।
लेकिन अब ? .. इन 25-30 सालों में कितना परिवर्तन आया ?
सबसे पहले तो अब स्त्री-पुरुष साथ में नहीं नहा सकते … क्यों ?
औरतें फिर भी जंगल चली जाय लेकिन लड़कियां? .. अकेले तो कभी भी नहीं और समूह में भी हिम्मत नहीं करती.. क्यों ?
खुले में स्तनपान कराना मुश्किल हो रहा हैं.. क्यों ?
परिवर्तन तो हुआ है और बड़ा हुआ है.. लड़कियां अब बोल्ड हुए जा रही हैं.. जीन्स-पेंट और टीशर्ट्स में खूब दिखने लगी हैं.. पढ़ने-लिखने लगी हैं.. लेकिन अकेले घर से बाहर ? .. कभी नहीं! .. क्यों ?
मेरे घर में टीवी साल 2000 में आई.. श्री कृष्ण,ॐ नमः शिवाय,जय हनुमान आदि सीरियल सभी जन मने बच्चे,बूढ़े,औरतें,लड़कियां सब एक साथ देखते थे.. लेकिन सिनेमा ज्यादातर लड़के ही देखते थे.. मैं उस टाइम पाँचवीं कक्षा में था.. हमें बच्चा कह के सिनेमा से दूर रखा जाता था अमूमन और अगर कभी देखने भी दिया गया तो गाने के टाइम भगा दिया जाता था.. खैर हमें क्या हमसे बस मार-पीट वाला सीन नहीं छूटना चाहिए बाकी छूटे तो छूटे।
एक दिन मेरी माँ,अगल-बगल की औरतें और कुछ बहुएँ जो शहर में पली बढ़ी थी, सब मिल के सन्डे का चार बजवा सनीमा देख रही थी.. हम भी थे.. गाँव की औरतें तो कुछ न जाने सिनेमा के बारे में.. लेकिन बहुएँ खूब जानती थी.. सनीमा शुरू हुआ तो हरेक चीज से बहुएँ परिचय करवा रही थी.. कौन क्या है नहीं है.. हीरो कौन है हीरोइन कौन है.. डॉट.. डॉट.. और इसी क्रम में पता चला कि अमिता बच्चन का सनीमा चल रहा है.. अब चल रहा है तो चल रहा है.. सब बड़े चाव से सनीमा देख रहे है.. तभी एगो गाना आता है.. गाना रोमांटिक वाला था.. तो रोमांस तो होना ही था.. तो अमिता बच्चन गले लगा-लगा कर हीरोइन के साथ डांस कर रहे थे और गाना गा रहे थे.. अब इतना देखना ही था कि गाँव की औरतें एकदम से चीख पड़ी.. “हाय गे मइया.. ईटा की करो हथीन एखनी गे मइया.. एकदम से अइसन.. हांय!!”
एक बहु “हाँ गो कइसन करा हा.. ई टा फिलिम लागे फिलिम.. तो अइसन करो हथीन.. एकर में अइसन चीखे के की बात!”
“हाँ गे बपढोहनी.. फिलिम लगे तो मने कि अइसन करबथीन.. एखनी की जैनी-मरद लगथीन?”
“जैनी-मरद तो नाय लगथीन.. लेकिन एखनी के ईटा करे के खातिर लाखों में पैसा मिलो है!”
“हाय गे मइया.. पैसा मिलते तो की अइसन केर भुलबथिन एकदम से छेगरी-पठरु लखे!”
“ऐ गो तोहनी के नाय देखना हो तो नाय देखा.. लेकिन अइसन नाय करा.. आईझ फिलिम कर जुग लागे.. समझली.. तोहनी के नाय सहाय रहल तो बाहर जा.. हमनी के आराम से देखल दा!”
“जो जूनढोहनी सब.. देख ला तोहनी ई सब.. हमनी के नाय देखना ई!”
………………………….
अब मैं तीनों चीजों को मिलाना चाहूँगा..
कुछ स्वादिष्ट भोजन के लिए नग्न नाचती जारवा महिलाओं को क्या मालूम कि ये हमें शूट क्यों कर रहे हैं? .. इन भोले-भाले मासूम नग्न जारवा महिलाओं को क्या मालुम कि कथित रूप से सभ्य और आधुनिक मानी जाने वाले दुनिया में नग्नता बिकती है। किंतु इसके ठीक विपरीत जो लोग धन का लालच देकर इनकी नग्नता के दृश्य कैमरे में कैद कर रहे थे, वे जरूर अच्छी तरह जानते थे कि यह नग्नता उनके व्यापारिक प्रतिष्ठान की टीआरपी बढ़ाने की सस्ती और जुगुप्सा जगाने वाली अचरज भरी वीडियो क्लीपिंग है।
हमारे देश की पुरातन और सनातन संस्कृति के परिवेश में नैसर्गिक और प्राकृतिक नग्नता कभी भी अश्लीलता और फूहड़ता का पर्याय नहीं रही हैं। पाश्चात्य मूल्यों और भौतिकवादी आधुनिकता ने ही प्राकृतिक व स्वाभाविक नग्नता को दमित काम-वासना की पृष्ठभूमि में रेखांकित किया है। वरना हमारे यहां तो खजुराहो, कोणार्क और कामसूत्र जैसे नितांत व मौलिक रचनाधर्मिता से स्पष्ट होता है कि एक राष्ट्र के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में हम कितनी व्यापक मानसिक दृष्टि से परिपक्व लोग थे। लेकिन कालांतर में विदेशी आक्रांताओं के शासन और उनकी संकीर्ण कार्य-प्रणाली ने हमारी सोच को बदला और नैसर्गिक नग्नता फूहड़ सेक्स का उत्तेजक हिस्सा बन गर्इ। इसीलिए कहना पड़ता है कि कथित रूप से हम आधुनिक भले ही हो गए हों, लेकिन सभ्यता की परिधि में आना अभी बाकी है।
जहाँ स्त्री को केवल मात्र उपभोग की वस्तु मान उसकी नग्नता को आधुनिकता की फूहड़ता में पुरुषों के मध्य बेचा/परोसा जा रहा है और पुरुष जहाँ अपनी पौरुष को भूलकर काम-वासना से वशीभूत हुए जा रहा है वहीँ स्त्रियों को इसके लिए नारी स्वतंत्रता, नारी उन्मुक्तता, नारी अधिकार बता-बता कर प्रेरित और प्रोत्साहित किया जा रहा हैं।
हमारी सनातन संस्कृति में स्त्री कभी भी बंधक नहीं रही हैं.. हमेशा ही उन्मुक्त और स्वतन्त्र रही हैं.. तुम आधुनिक भौतिकवादियों ने हमारी नैसर्गिक नग्नता को अश्लील और फूहड़ नग्नता के साँचे में ढालकर प्रस्तुत करना शुरू किया और पुरुषों को विकृत करना।… बंगलौर,दिल्ली और तमाम जगहें बस इसी का प्रतिफल हैं। .. सोचने वाली बात है कि जहाँ सबसे ज्यादा मोडर्न और आधुनिक होकर अपने को सभ्य होने का दम्भ भरने वाले लोग हैं वहीँ इस तरह की घटनाएं आम होती हैं? .. क्यों भला? .. उत्तर ऊपर ही है।
अभी भी सनातन पुरातन संस्कृति को रु-ब-रु देखना चाहते हैं तो आप सुदूर गांवों में चले जाइए जहाँ कथित आधुनिकता की फूहड़ता न पहुँची हो.. वहाँ आपको सही मायनों में सभ्य स्त्री और पुरुष मिलेंगे।
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गंगवा
खोपोली से।
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