Friday, January 6, 2017

||हलाला||

गुजर महतो और बिलसी देवी.. पति-पत्नी..  शादी के पाँच साल हो गए है.. एक बेटा है, नाम दिलीप.. हँसता-खिलता परिवार है.. गुजर महतो के पास ज्यादा खेती बारी नहीं है.. बड़े महतो के घर कमिया खटता है और परिवार का भरण पोषण करता है.. थोड़ा गुस्सैल स्वभाव का है लेकिन अपनी पत्नी से थोड़ा कम.. मने गुजर उन्नीस तो बिलसी बीस.. लड़ते-झगड़ते खूब है,लेकिन प्यार भी बहुत है.. गुजर खेतों में काम करते-करते शाम को कलाली महुआ का दारु पीने बैठ जाता और ज़रा लेट करता तो बिलसी महतवाइन सिंदवायर का सोंटा ले के अड्डे में पहुँच जाती और गुजर का गमछा पकड़ के ले सोंटा..ले सोंटा..! .. अपने साथियों के मध्य अपने को पीटता देख दारुपिये गुजर भी तैश में आ जाता और बिलसी का जोरदार प्रतिकार करने लगता.. लेकिन बिलसी तो ठहरी बीस, सोंटे की स्पीड तीन सौ साठ के पार! .. पुरे रास्ते भर गरिया-गरिया के घर लाती और बाहर खडरे(खाली) खाटी में ला के लेटा देती और खुद घर के अंदर अपने बच्चे के साथ सो जाती.. सुबह होते ही गुजर ऐसे हो जाता जैसे कुछ हुआ ही न हो.. खटिया से उठ के तालाब तरफ जाता, नित्य क्रिया से निवृत होता फिर माड़-भात खा के काम पे निकल जाता।
अभी धरम महतो के घर कुंआ कटा रहा है.. गुजर उसी कुंए में काम करने जा रहा है.. कुँए के अंदर गैता मारते हुए चैता महतो बोलता है..
“का हो गुजर.. दिलपा(दिलीप) मईए तो राती तो पूरा सोंट देले हो तोरा के मरदे आर उ भी सभे के सामने!!”
“अब की करभी चैता भाय.. सबके थोड़ी सौभाग्य मिलो है आपन जेनी(पत्नी) से माइर खाय ले.. !”
गुज़र के इतना कहते ही सब ठहाके मार के हँसने लगते हैं!
गुजर आज शाम केवल एक गिलास महुआ चढ़ाया और घर टेम पे आ गया.. नशा तो थोड़ी चढ़ी थी.. और कुँए में काम करते लोगों द्वारा ताने सुनने के कारण थोड़ा मूड ऑफ़ में था.. बिलसी आई और गंधारी साग, हरी मिर्च और भात ला के परोस दी..  भात में साग सान के जैसे ही पहला कोर मुँह में लिया झल्ला पड़ा बिलसी के ऊपर..
“आंय गे दिलपा मइया.. कोनो लुइर-धचर हो की नाय गे तोरा के सब्जी-वब्जी बनवे ले हाँ ?”
“की भेलो जे उंडरे लागल है?”
“निमक केतना डाल देलय ही!! … एतना मेहनत से सबकुछ कमाय-धमाय के आइन दो हियो तो तनी खाना तो बेस के खियाव !”
“ऐ जादा मच-मच नाय कर.. लोटवे पानी हो.. उ पनिया डाल आर खो.. निमक कम भे जीतो.. जादा नाक-मुँह टेढ़ा-मेढ़ा नाय कर!”
“तोरा अहे खातिर आनल हलियो गे तोर बाप घर से बिहा कर के.. कि तोय हमरा अहे नियर राइन्ध-बाइट के खियेबे.. मईए तोरा कुछो नाय सीखेलो गे ?”
“जे जूनढोहना!!! (तनिक गुस्से से) !! … हमर माय-बाप के बीच में नाय ला.. बताय रहल हियो… हमर मईए आर बापे हमरा के की सीखेले है से हमरा सब पता है.. तोय आपन देख तोर माईये-बप्पे की सीखेलो हो से!.. पठवा काम ने धंधा आर खाय ले खोजे है एकदम चिकन चिकन.. जेतने नूनवा वतने गुणवा.. समझली.. तो जेटा मिलल हो सेटा धकल और बाहरी खटिया में पसेर जो!”
“तोरी घरकेगुद मारो.. जादा ज़बान चलेभी गे.. अहे थरवा(थारा/थाली) अभी अइसन झबेद के मारबो ने कि मुड़िया केट के फेंकाय जीतो.. तोरा तोर बाप घर से आनल हियो तो तोरा भूखे नाय मोराय रहल हियो… खेते-कुंवे काम कर-कर के कोनो नियर खियाय रहल हियो.. समझली .. जादा बोलभी गे!!”
अब बिलसी तमतमाते हुए गुजर के पास आ जाती है..
“हाँ बोलबो.. आर जादा बोलबो… की केर लेभी से बोल?... की करभी बोल?!”
“मन तो हमरा अइसन करो हे जे तोरा हम छोइड़-छाइड़ देबो… आर हम अकेले रही!”
छोड़ने का नाम सुनते ही बिलसी का पारा सातवें आसमान पर.. अपने घुघा को कमर में खोसते हुए बोलने लगी..
“हमरा छोड़े के बात करो ही रे जूनढोहना!... हाँ!?? .. हमर बाप घार से अहे खातिर बिहा केर के आनल है रे हमरा ? .. छोड़े खातिर आनल है हमरा? … कान खोल के सुन ले.. हम तो छोड़े-ओड़े वाला नाय हियो.. अग्नि के सात फेरा लेल हियो तोर संगे.. सात जन्म के कसम खाइल हियो तोर संगे… आर तोय हमरा छोड़े के बात करे है रे! .. ई जन्म तो कि तोरा सात जन्म तक भी साथ न छोड़बो हम.. छोड़े के बात करबे रे! .. हम कूट-कूट के आटा नाय बनाय देलियो तो हमर नाम नाय बिलसी.. हाँ!”
गुजर थारा को गुस्से से सरकाता है और खटिया उठा के बाहर अंगने में सो जाता है.. !
भले ही बिलसी लड़ती-झगड़ती थी, लेकिन गुजर से बहुत प्यार करती थी.. गुज़र घर आने में लेट हो गया तो दिलीप को साथ में ले एक अधीरता के साथ गाली देती हुई पूरा कुल्ही छान मारती थी.. उसके अड्डों से हो आती थी .. और कहीं न मिला तो हताश हो घर में बैठ के रोने लगती थी.. और अपने को कोसने लगती थी.. ‘हाय हम काहे डाँट दिए थे!.. कहाँ चला गया हमर दिलपा के बप्पा.. अब आने दो घर.. अब हम कभी नहीं डाँटेंगे.. कभी नहीं झगड़ा करेंगे!”
लेकिन जैसे ही गुजर घर में प्रवेश करता बिलसी अपने झाँसी की रानी वाली फॉर्म में आ जाती.. और फिर ले डाँट-फटकार.. और ज़रूरत पड़ने पे बेलन और सोंटा!
बस ऐसे ही गुजर और बिलसी की दाम्पत्य जीवन की गाड़ी चल रही थी, लड़ाई-झगड़े और प्रेम के साथ।।
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फिर कुछ समय पश्चात उत्तर के तरफ से कुछ आदमी आये.. अलग ढंग के पहनावा पहने, मूँछ विहीन, लम्बी दाढ़ी और गोल जालीदार टोपी लगाये... चेहरे और आवाज़ में ओज और तेज़.. तक़रीर ऐसे करते कि कोई भी मन्त्रमुग्ध हो जाय.. दूसरे को कोसे तो अपने आप में शर्म महसूस होने लगे! .. पूछने पाछने पे पता चला कि इन्हें मौलवी साब कहते हैं.. और ये बहुत ही प्यारा धर्म इस्लाम का प्रचार-प्रसार करने निकले हैं.. गाँव-गाँव में रुकते हैं और अपने धर्म के बारे में सबको बताते हैं.. इस धर्म में ऊँच-नीच जैसी कोई बात नहीं हैं.. सब मुसलमान हैं तो मुसलमान हैं और कुछ नहीं! कोई ऊँच-नीच नहीं! ... जरूरतमन्दों की मदद भी खूब करते हैं और हर तरीके से करते हैं।.. . आज शाम को मौलवी साब ने गाँव के कुलमुड़वा में बैठक बुलाया है.. सो सबको वहाँ जाना हैं!।
गुज़र, चैता, खैटा,शुकर,शंकर जैसे लोग उस सभा में जाते हैं.. मौलवी साब जब बोलना शुरू हुए तो सब उसकी बातों में खो जाते है.. और जब हिन्दू धर्म में उतरे तो सबको अपने आप में हिन्दू होने में शर्म महसूस होने लगता हैं... उन्होंने पूरी इतिहास सामने रख दी.. तुम्हें क्या मिला है अब तक और आगे क्या मिलेगा? .. अगर आप इस्लाम में ईमान लाते हो तो तुम्हें क्या-क्या फायदा होगा ? वगेरह.. वगेरह.. !
वहाँ मौजूद लगभग सभी जन इस्लाम से बहुत प्रभावित होते हैं.. और इस्लाम में ईमान लाने की मंशा जताते हैं.. अगले दिन जितने भी जन इस्लाम में आना चाहते हैं वो इकट्ठे होते हैं और मौलवी साब कुरान का कलिमा पढ़ के सबको इस्लाम में विधिवत दीक्षित करवाते हैं। और इसके बाद मौलवी लोगों का कारवां अगले गाँव की ओर कूच कर जाता हैं।
इस्लाम में दीक्षित होने के बाद गुजर महतो गुजर मियां बन जाता है और बिलसी देवी बिलसी ख़ातून.. इसी तरह अन्य भी चैता मियां.. खैटा मियां.. शुकर मियां आदि.. आदि!!
गुजर महतो जैसे लोग जिनके पास नाम मात्र की जमीन थी, किसी तरह परिवार चलाते थे उसके गुजर मियां बनते ही अब उसके नाम एकड़ों में जमीन है, पहाड़ियां हैं.. और गाँव के बड़े महतो लोगों को टक्कर देने लगे हैं।
खैर मुसलमान बनते ही इनके जीवन में थोड़ा सुधार आया.. आस पड़ोस के पाँच-छः गाँवों के मुसलमानों ने मिलकर अपनी एक मस्जिद बना ली.. वहाँ पे एक मौलवी जी भी आ गए.. अब वहाँ से पाँचों वक़्त के नमाज़ सुनाई देने लगे..  वहाँ पे नियमित रूप से हर शुक्रवार को इबादत के लिए लोग जुटने लगे।
.. कुछेक समय पश्चात इनमें परिवर्तन साफ़ परिलक्षित होने लगी... बोली-चाली से लेकर पहनावे और रहन-सहन तक में..  दाढ़ी बढ़ती गई और मूँछेँ छोटी होते गई.. धोती लुंगी में परिवर्तित होने लगी.. लोगों के ज़ुबान पर उर्दू के लफ्ज़ चढ़ने लगे.. लौटों का स्थान केतली ने लिया.. पूरब में झुकने वाला सर अब पश्चिम में झुकने लगा।
महिलाओं में भी परिवर्तन आने लगे.. साड़ी पहनने का स्टाइल चेंज होने लगा.. सलवार जम्फर में ज्यादा नज़र आने लगी.. साड़ी के घुघे का स्थान दुप्पटे ने लिया.. ब्लाउज के बाँह की साइज़ बढ़ गई.. नाक के नथ की साइज़ बढ़ गई.. सिंदूर का स्थान संदल ने लिया.. डॉट..डॉट।
लेकिन बिलसी देवी अभी भी बिलसी देवी ही थी… भले ही उसका पहनावा बदल गया था लेकिन थी पहले वाली ही बिलसी देवी। .. वही हक़ पति पे जताती थी.. कुछ ज्यादा अटर-पटर बोलने सीधा सोंटा ले के हाज़िर हो जाती थी.. मने तेवर कम न हुए थे.. बदली बिल्कुल भी न थी। .. लेकिन जैसे-जैसे गुजर मियां मस्जिद में नियमित आते जाते रहा वैसे-वैसे ही वो बिलसी के ऊपर डोमिनेंट होने की कोशिश करने लगा.. लेकिन बिलसी थी तो उनसे बीस उसकी एक न चलने देती। …  बोलती.. “ये मियाँ.. मैं गौर कर रही हूँ कि जब से तुम ज्यादा प्याज खाने लगे हो.. मस्जिद में आने जाने लगे हो,  तब से देख रही हूँ कि तुम मेरे ऊपर रौब जमाने की कोशिश कर रहे हो.. तो ज़रा कान खोल के सुन लो.. मैं पहले जैसी थी वैसी ही हूँ और रहूँगी भी.. मेरे ऊपर रौब झाड़ने की कोशिश मत करना.. बिलसी का केवल नाम बदला है बिलसी नहीं।!”
लेकिन जैसा था कि पति-पत्नी के बीच झड़पें आम थी और नियमित होते भी रहती थी..  तो एक दिन फिर से झगड़ा सुलग उठा.. और घमासान मचने लगी.. आस पड़ोस के लोग भी आ गए.. लोग बाग़ समझाने की कोशिश करने लगे.. लेकिन कोई किसी को सुनने को तैयार ही नहीं.. बात बढ़ते गई और फिर बात छोड़ने-छाड़ने पे आ गई.. बिलसी फिर से उखड़ गई.. अपना दुपट्टा कमर में बाँधते हुए बोली..
“बता तो मियाँ हमरा कैसे छोड़ दोगे ? … कोई सामान हिये हम जे छोइड़ देभी.. !? हाँ ?”
“बस.. बहुत भे गेलो दिलावर(दिलीप) की अम्मा.. अब तोय उ बिलसी देवी नाय है जे तोरा हम नाय छोड़े पारबो! उ सात जन्म वाली .. अब तोय बिलसी खातुन है.. तोरा तो हम जखन चाहबो तखन छोइड़ देबो ! … तो हमरा माथा अभी जादा गरम नाय कर.. समझाय रहल हियो !!”
“नाय तो की करभी बता ? ?? बता!!” और भी गुस्से से बिलसी गुज़र की ओर आते हुए बोली
“तलाक दे देबो हम.. तलाक .. हां!”
“अरे जूनढोहना .. ई तलाक़ का होता है रे .. जे हमको दे देगा ? हाँ !”
इतने में ही खैटा मियां आया और गुजर को समझाने लगा .. “अरे गुजर ई का बोल रहा है रे गुस्से में .. का आलतू फ़ालतू बके जा रहा है हाँ! .. तलाक़ देगा भौजी को ? … चल बाहर चल.. अभी तुम बहुत गुस्सा में हो.. चलो मेरे साथ बाहर.. सुबह सब सही हो जाएगा!”
“ऐ खैटा भाई.. छोड़ो मुझे और फ़ालतू में बीच में न पड़ो… आज इसकी अक्ल ठिकाने लगानी ही पड़ेगी.. बहुत हो गया इसका.. बहुत सह लिया इसको”
“अरे का करेगा रे मियाँ… तनिक बताओ न !”  बिलसी एकदम से सामने आ के बोली
“तोरा हम तलाक़ दे रहल हियो… तलाक़~~!! … तलाक़~~~!! … तलाक़~~~~!!!”
गुजर ये शब्द जोर-जोर से और चीख-चीख के बोलता है और बिलसी को धक्का देते हुए बाहर निकल जाता है.. उसके पीछे खैटा भागते हुए पीछे जाता है!
इधर बिलसी असंतुलित हो आँगन में गिर जाती हैं.. वहाँ मौजूद महिलाओं और खुद बिलसी को भी नहीं मालुम कि ये तलाक़ क्या होता है.. और किस चिड़िया का नाम है? .. लेकिन सबके मन में यही चल रहा है कि ये कोई चीज है जिसके बाद अलग हो सकते है, जिसको कहकर गुजर निकल गया है!
इधर बिलसी भी थोड़ी सहम गई है.. उसे नहीं पता कि गुजर क्या कह के निकल गया है.. लेकिन घबराहट बड़ी हो रही है!।
बाहर खैटा गुजर को समझा रहा है.. “अरे गुजर ई का कर दिया रे.. भौजी को तलाक़ दे दिया! .. गुस्से में तीन तलाक़ दे दिया.. इसके आगे का भी नियम मालुम है न क्या-क्या करना पड़ता है ?”
“नहीं मालूम.. और मालूम करना भी नहीं है.. जाने दो.. अब दे दिया तो दे दिया.. बहुत दिमाग खराब कर के रखी थी.. अब जो होगा सो देखा जाएगा!”

एक दिन गुजरा.. दो दिन गुजरा.. तीसरे दिन उसे अपनी गलती का अहसास हुआ.. खैटा के साथ मस्जिद गया और मौलवी साब से भेंट किया..
खैटा बोला “मौलवी साब.. इसने अपनी बीवी को गुस्से में आकर तीन तलाक़ दे दिया.. लेकिन अब इन्हें पछतावा हो रहा है.. अपनी बीवी को फिर से अपनाना चाहता है.. क्या किया जाय?”
मौलवी साब “देखो बच्चा.. इस तरह का कोई मामला होता है तो कुरान की रौशनी में इसका उपाय है जिसे ‘हलाला’ कहते है।.. जिसके मुताबिक अगर कोई खामिंद अपनी खातुन को तीन तलाक़ दे देता है और दुबारा उसे अपनाना चाहता है तो उसे हलाला से गुजरना अनिवार्य है!”
“ये हलाला क्या होता है मौलवी साब?”
“हलाला अपनी खातुन को दुबारा हासिल करने का तरीका है.. जिसमें आपकी खातुन को पहले किसी से निकाह करवाना पड़ेगा फिर जिस आदमी से उसका निकाह होगा वो आदमी आपकी खातुन को तीन तलाक़ देगा उसके बाद फिर आप उससे दुबारा निकाह कर सकते है!”
“अच्छा तो फिर निकाह ही होगा न.. उसके बाद तलाक़ दे देगा न ?”
“नहीं.. वो निकाह भले ही एक दिन का हो लेकिन वो पूरी निकाह होगी.. एक आम मियाँ-बीवी की तरह..  वो एक आम मियां-बीवी की तरह एक दूसरे के साथ समय गुजारेंगे.. ज़ुआकी तालुकात (जिश्मानी सम्बन्ध) अनिवार्य है.. और उसके निकाह के मेहर का खर्च उसका शौहर उठाएगा।”
“लेकिन ऐसा कौन होगा जो सिर्फ एक दिन के लिए निकाह करेगा.. और अगर निकाह करने के बाद तलाक़ न दिया तो?”
“आपको जिसपे बहुत ज्यादा विश्वास हो उससे निकाह करवाइये.. और अगर कोई आपके नज़र में ऐसा न हो तो मैं इस हलाला के लिए राजी हूँ.. मैं पूरी गारन्टी देता हूँ कि निकाह के अगले दिन ही आपकी खातुन को तलाक़ दे दूँगा!”
“मौलवी साब .. अगर बिना हलाला के ही निकाह करेंगे तो क्या होगा?”
“तौबा.. तौबा.. लाहौल-बिला-कुव्वत.. कुफ़्र होगा कुफ़्र... भयंकर कुफ़्र होगा.. अल्लाह ताला इसके लिए तुम्हें जहन्नम में जगह देगा!”।
“ठीक है.. ठीक है.. मौलवी साब .. हम हलाला के लिए तैयार है”.

सभी राय मशविरा ले के गुजर और खैटा घर लौटते है..
इधर बिलसी उस झगड़े के बाद थोड़ी गुमसुम है.. गुजर भी ठीक से बात नहीं कर रहा उससे! .. घर आकर गुजर बिलसी से हिम्मत जुटाकर बोलता है..
“दिलावर की अम्मा.. अभी हम मौलवी साब से भेंट करके आये है.. हम तुमसे दुबारा निकाह करने वाले है!”
बिलसी के गुमसुम चेहरे पे अचानक से ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है.. बोलती है .. “का कह रहे हो दिलावर के अब्बा.. हम सच में निकाह करने वाले है?”
“हाँ.. लेकिन उससे पहले तुम्हें हलाला से गुजरना होगा”
“ये हलाला क्या होता है?” बिलसी सवालिया लहज़े में पूछती है..
इसके बाद गुजर हलाला के बारे में पूरा बताता है.. सबकुछ सुनने के बाद बिलसी एकदम से निढाल हो जाती है..
गुजर समझाता है.. “अरे दिलावर की अम्मा.. सिर्फ एक दिन की हो बात है.. वैसे भी मौलवी साब बहुत ही अच्छे और भले इंसान है.. तुमको कुछ न होगा… और अगर हम ये न करते है तो कुफ़्र होगा कुफ़्र..  और कुफ़्र की सज़ा बहुत शदीद होती है.. हम मुसलमान कुरान के खिलाफ नहीं जा सकते.. तुम्हें हलाला करना ही पड़ेगा.. अगर तुम मेरी बीवी बने रहना चाहती हो तो तुम्हें एक दिन का निकाह करना ही पड़ेगा!”
बिलसी न चाहते हुए भी हलाला के लिए हामी भर देती है!
अगले दिन निकाह की तैयारी होती है.. दूल्हा मौलवी साब बने हुए है! .. मेहर तय होता है और निकाह होता है..
निकाह होने के बाद बिलसी एकदम से बेजान पड़ी हुई है.. पत्थर सी जड़ हो गई है.. उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी कि उसे तीन तलाक़ के बदले इस दौर से गुजरना पड़ेगा!.. किसी गैर मर्द के साथ सोना पड़ेगा.. और अगर ऐसा नहीं करती है तो कुफ़्र की भागीदार बनेगी।.. एक स्त्री मन और हृदय को पत्थर की भाँति कठोर बना वह मौलवी के सामने लेट जाती है.. मौलवी भूखे भेड़िये की तरह उसके शरीर पे टूट पड़ता है.. नोच-नोच के खाने लगता है.. बेजान सी लेटी बिलसी के आँखों से आँसू बस अनवरत बहे जा रहे हैं। बिलसी के लिए तो इस रात की एक-एक घड़ी किसी युग से कम नहीं लग रहा है.. कटे नहीं कट रहा है.. एक-एक पल के साथ लगता है कि रात बढ़ती जा रही है.. और गहराती जा रही है.. लगता है कि सुबह जैसे रूठ गया हो.. उसको आदर करके बुलाने पर भी नहीं आ रहा है.. बिलसी बस सुबह के इंतज़ार में मांस के लोथड़े की भाँति लेटी रही और बूढ़ा मौलवी पूरी रात उसके शरीर को नोचता रहा!
किसी औरत के लिए ये पल कैसा रहा होगा इसे हम सिर्फ कल्पना कर सकते है और कुछ नहीं! .. औरतें इस पल को कैसे झेलती होगी!!
खैर जैसे-तैसे सुबह हुई और मौलवी  से तलाक़ लेने के बाद दुबारा बिलसी की शादी गुजर से तारीख निर्धारित की जाती है। और फिर से उन दोनों के दाम्पत्य जीवन की गाड़ी आगे बढ़ती है.. लेकिन अब बिलसी पूरी तरह बदल गई है.. बिलसी अब बिलसी देवी नहीं रही बल्कि पूरी तरह बिलसी खातुन बन चुकी है।.. अब वो अपने शौहर के खिलाफ कुछ भी नहीं बोलती है… जहाँ वो सात जन्म तक पीछा न छोड़ने वाली बनती थी अब वो अपने शौहर के ज़रा से गुस्से से भी काँप जाती है.. उनकी भरसक यही कोशिश रहती कि दिलावर के अब्बा किसी तरह से गुस्सा न हो जाए और तीन तलाक़ न कह दे! .. जहाँ वो गुजर के कुछ कहने पे सोंटा से सोंट देती थी वहीँ अब उसके गुस्सा होने पे सोंटा थमा देती है और बोलती है “लगे तो आप मुझे सोंट दीजिये लेकिन वो तीन शब्द कभी भी दुबारा न बोलियेगा।।”
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गंगा महतो
खोपोली

(नोट: ये कहानी गंगवा की कल्पना शक्ति की उपज मात्र है.. अगर किसी घटना या व्यक्ति से इसका सम्बन्ध होता है तो ये महज एक संयोग होगा! 😊)

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