गाँव के टँड़िया वाला इस्कूलवा में हम चौथी कक्षा में पढ़ रहे है.. बूढ़ा मास्टर (मेघलाल महतो) गाय पर निबन्ध लिखने दिए है… ‘गाय एक पालतू जानवर है .. गाय के चार पैर होते हैं.. गाय के दो आँख, दो कान, दो सिंग और एक लम्बी पूँछ होती है.. गाय घास खाती है डॉट.. डॉट.. डॉट ..’ लिख ही रहे थे कि इतने में मेरे बप्पा याने श्री शुकर महतो गोद में मेरी छोटी बहन को लिए हुए की एंट्री होती है .. आते ही बप्पा मास्टर जी से बोलते है “मास्टर साहेब आज हमर मोदी बाबू(मेरा गाँव का नाम) को तनिक छुट्टी दे दीजिये न … का है कि इसकी माँ जंगल चली गई और मेरा दू बजवा डिब्टी(ड्यूटी) है .. घर का देखभाल करने के लिए कोई नहीं है.. बच्चे भी है .. कोई तो चाहिए न घर में … तो इसलिए इसको छुट्टी दे दीजिये !”
“देखिये महतो जी … आपका ई बेटवा न पढ़ने-लिखने में ठीक-ठाक है.. आप हर एक दो रोज बाद इसको स्कूल से उठा के ले जाते है… प्रभाव पड़ता है इसका पढ़ाई में!”
“अब का कहे मास्टर जी .. घर में तकलीफ है तबे न ले जाते है.. अगर घर में कोई रहता है तो लेने नहीं आते है।“
“ठीक है .. ले जाइए।“
मैं अपना बोरा और झोला उठाता और बप्पा के पीछू-पीछू घर आ जाता।
बीच रस्ते में बोलते आते “हमको मालुम है तुमलोग पढ़-लिख के नेहाल करोगे … बड़का फोरमेन आर इंजीनियर बनोगे!”.
मैं बस सुनते-सुनते बप्पा के पीछू-पीछू घर आ जाता । बप्पा खाना-पीना खा के साइकिल उठाये और निकलने लगे ड्यूटी को.. जाते-जाते समझा रहे है “घर से बाहर कहीं मत निकलना.. यहीं आँगन में ही खेलते रहना जब तक मैया बोन (वन) से न आ जाये.. गाय-गरु, छेगरी-पठरु का ध्यान रखना.. करहैया(कड़ाही) में धिपवल(गर्म किया हुआ) दूध रखा हुआ है.. बाबू-नूनी कांदेगा(रोयेगा) तो पिला देना.. और हाँ अगर मैया लेट करती है तो चूल्हा भी जला लेना.. ठीक है ?”
“हाँ ठीक है बप्पा “
“अच्छा ठीक है फिर हम चलते है”
“हाँ ठीक”
बप्पा पैंडिल मारते हुए ड्यूटी को निकल लेते है… मैं आँगन का टाटी(टीने से बना हुआ दरवाजा) बन्द करता और अपने भाइयों और बहन को सँभालने लग जाता। .. हमलोग चार भाई और एक छोटी बहन .. छोटी बहन और भाई दोनों जुड़वा है.. मैं मंझला.. याने मेरे से छोटे तीन .. मेरा बड़ा भाई नावाडीह में पढ़ने जाता था.. तो उसको घर लौटते-लौटते शाम के पाँच बज जाते थे। तो अगर घर में कोई न रहा तो सारी जिम्मेवारी मेरे ऊपर और उस दिन मेरा स्कूल नहीं जाना या फिर स्कूल से वापिस आना तय।
खैर मैं अपने भाई-बहन को सँभालने लगा.. आँगन हमलोग का बहुत बड़ा था.. इतना बड़ा कि खलिहान उसी में करते थे.. उसी हम खेलने लगे… कभी पठरु(बकरी का बच्चा) के साथ तो कभी लेरु(बछड़ा) के साथ.. क्योंकि उस टाइम गाँव में मनोरंजन के कुछ अन्य साधन थे भी नहीं थे.. अपना मनोरंजन बस इन्हीं सब के मध्य होता था.. पठरु और लेरु को हम प्यार से बाबू-बाबू कहते थे.. छोटा भाई पठरु को गोद में ले के खेलते रहता था.. तो कभी उसको आँगन में दौड़ा-दौड़ा के उसके पीछे भागता.. वो सब भी अपनी माँओं के पास कम और हमलोग के पास ज्यादा रहते थे.. अभी खेलते हुए कुछ देर हुआ ही था कि टाटी के खड़खड़ाने की आवाज आई .. मेरी बहन दौड़ती हुई टाटी के पास पहुँची.. टाटी के फ़ाँक से देखते ही तुतलाते हुई ख़ुशी से चिल्लाने लगी “लतिया(रतिया) के बल्दा आय गेलो.. लतिया के बल्दा गेलो !” .. मैं गया और टाटी खोल के “रती महतो के बैल” को अंदर ले आया। .. अन्य गाय-गोरु शाम को पाँच बजे तक आते थे लेकिन रती महतो का बैल दो बजते-बजते ही घर को आ जाता.. शायद हम बच्चों का प्यार ही कह सकते है कि वो इतनी जल्दी आ जाता था !! .. मेरे भाई लोग उसके साथ खेलने लगे.. उसको गुदगुदाते ही वह बैठ गया.. और मज़ा लेने लगा.. मैं सुप उठाया और बीटा से कुछ महुआ और नमक ले के गमले में पानी डाल के उसके आगे कर दिया.. मेरा भाई हाथ से घोल-घोल के पिला रहा था.. एक साँस में ही पूरा पानी खत्म कर दिया.. फिर वह अपने साथ खेलने में मगन हो गया.. वह भूल से भी न कभी लात मारता था और न ही सींग.. उसको हमलोग के साथ में खेलने में आनन्द आता था.. मेरे भाई लोग उसके ऊपर चढ़ जाते लेकिन कभी बिदकता नहीं था.. बस पूँछी तान के खड़े हो जाता था। .. बस ऐसे ही समय गुजर रहा था.. इतने में ही मेरा छोटा भाई किसी बात पे रोना स्टार्ट कर दिया.. मैं लगा उसको चुप कराने लेकिन वो चुप ही नहीं होता.. बस “मैया-मैया” की रट लगाना शुरू कर दिया .. मैं बोलता “अरे मैया अब आ जायेगी.. टेम हो गया है.. आती ही होगी.. रस्ते में होगी.. चुप हो जाओ चुप हो जाओ..” लेकिन वो है कि चुप होने का नाम ही नहीं लेता.. और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगता .. “दूध पियेगा बाबू ??” कुछ सुनना ही नहीं चाहता.. फिर बोला “चलो भुनु काकू का दोकना(दूकान) उ पँखा वाला लेमचूस ले देते है!” इतना सुनते ही उसके रोने की स्पीड एकदम से धीमी हो जाती है.. झर-झर गिरते आँसू एकदम से ब्रेक लगा लेते है.. बाकी के आँसू पोछते हुए जल्दी चलो जल्दी चलो कहने लगा… फिर उसको दूकान ले के गया.. लेमचूस खरीद के दिया तब जा के चुप हुआ।
साढ़े चार बज चुके थे.. मम्मी नहीं आई थी.. मेरी दादी जो बीमार खटिया में लेटी रहती थी चिल्लाने लगी “अरे मोदिया .. चुल्हवा जला दो न रे .. पता नहीं तोर मैया कब तक आएगी ?” .. फिर मैं कोयला-काठी निकाला और चूल्हा जला दिया .. आग जब गनगनाने लगा तो.. भात के लिए डेगची में ‘अधन’ भी चढ़ा दिया। .. अधन चढ़ा के मैं घर के अंदर ही था कि बाहर कुल्ही में से आवाज आई “जेटला(मेरा नाम जो सिर्फ मैया बोलती है) .. अरे जेटला.. टटिया खोल रे !” मैया सर में काठी का बोझा लिए आवाज लगा रही थी.. मेरे भाई-बहन दौड़ के टाटी के पास पहुँच गए और लगे ख़ुशी के चिल्लाने “मैया आय गेलो.. मैया आय गेलो” .. और उछल-उछल के रस्सी को खोलने की कोशिश करने लगे जिससे कि टाटी बंधा हुआ था.. लेकिन उ सब के पहुँच के बाहर था.. मैं गया और रस्सी खोल दिया.. मैया बोझा ले के अंदर आने लगी … दोनों भाई-बहन साड़ी पकड़ के अंदर आने लगे .. बीच आँगन में पहुँच के “अरे भागो.. भागो.. बोझा पटकने दो.. दूर हो जाओ.. नहीं तो लग जाएगा।“ मैं गया दोनों को पकड़ के साइड किया तब जा के मैया ने बोझा पटका।.. अब जा के दोनों भाई-बहन माँ से चिपक लिए.. और लगे बोलने “मैया.. मैया .. आईझ बोनवा से की आइन देली गे.. की आइन देली गे... जल्दी दे .. जल्दी दे !” .. मैया अपना आँचल सामने लाती है और उसको खोलती है.. सरय (सखुआ) के पत्ते में बंधा ‘साईया कोइर्(बेर) और कन्नौद’ रहता है.. दोनों भाई-बहन को थमा देती है.. मैं गया और बोला “हमको नहीं दोगे बाबू ?”
“नहीं .. नहीं देंगे.. हम अकेले खाएंगे .. मैया ने हमले लिए लाया है !”
“अच्छा .. ठीक है.. फिर हम ले जाएंगे कभी भुनु काकू का दोकना पँखा वाला लेमचूस खिलाने !”
फिर वह कुछ साईया कोइर् और कन्नौद निकाल के देता..!
मैया बैठ के सभी लकड़ियों को टांगी से टुकड़े-टुकड़े करती है और मैं और मेरे से छोटा वाला भाई उसको बारी में बने मचान में ले जा के रखने लगते है। मैया हमेशा जंगल से कुछ न कुछ खाने का फल-सब्जी लाते रहती थी.. पियार,भेलवा,बेल,कुन्दरी,खुखड़ी,फुटका,साग,खकसा.. और ऐसे ही।
काठी को मचान में रखने के बाद “नेठो’’(पत्तों गुच्छों से बनाया हुआ जिसको मुंडी में रखते है जिससे कि बोझा का भार सर पे ज्यादा न गड़े) को ले बाहर गली में निकलता और उसमें अपने भाइयों को बिठा के गली की सैर कराता।
मेरे घर का लगभग ये रोज का काम था… मेरा स्कूल का नागा होना आम बात था.. साल भर कुछ न कुछ ऐसे ही काम चलते रहते थे… मेरी दादी मेरे बप्पा से बोलती “अरे बड़का नतिया को बिहा कर दो न.. उसकी कनेया कम से कम घर-दुआर देखने का तो काम कर ही सकती है न .. जेटला बाबू को रोज-रोज इस्कूल से उठा के ले आते हो.. अकेले कितना काम करेगा बेचारा.. बाल-बुतरू से ले के छेगरी-पठरु, गाय-लेरु, चूल्हा-चौकी.. का का करेगा ई? .. जल्दी से बड़का नतिया को बिहा करो!” .. खैर दादी ये कहते-कहते चल बसी .. मैं जब सातवीं कक्षा में पहुँचा तब जा के भैया का शादी हुआ .. और फिर तब से मेरा इस्कूल जाना रेगुलर हुआ। .. भौजी अब अन्य संगियों के साथ अपनी-अपनी सासु माँओं का बोझा लोकने जाने लगी.. बल्कि अब भी जा रही है।
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मैया अब बुढ़ाय गई है .. फिर भी जंगल जाते रहती है.. कुछ न कुछ जंगल से अपनी नाती-पोतों के लिए खाने के लिए लाती रहती है.. हम कभी उपस्थित रहे तो छोड़ते नहीं है खाना .. पूरा कब्जा कर लेते है। बोलता हूँ ‘तुमलोगों ने बचपन में पूरा का पूरा खाया है.. अब हमारे खानी की बारी है .. एक भी नहीं दूंगा।‘ मेरी बड़ी दीदी को जब भी फोन लगाओ तो वो घर में मिलती ही नहीं है .. भांजे बोलते है ‘मामू मैया अभी बोन गेल हो .. ऐतो ने तो मिस कॉल कर देबो!”। .. छुट्टी में जब भी दीदी घर जाता हूँ तो दीदी तुरंत लकड़ी-काठी का जुगाड़ करने लगती है.. घर धुंआं-धुंआं हो उठता है ! … धुंवे से आँसू पोछते-पोछते चाय बना ला देती है।
बोकारो जिला में चार ठो पॉवर प्लांट है और ये शायद कोई रेकॉर्ड भी है.. दूसरों राज्यों को बिजली सप्लाय होती है.. लेकिन हमारे गाँव में 2002 में बिजली आई.. ! वो भी बस नाम का ! .. 2008-09 के बाद थोड़ी हालत सुधरी है।
ऊपर जो मैंने अपनी आप-बीती वर्णन की है, तब और आज में ज्यादा से ज्यादा से महज 7 से 10% का बदलाव आया है.. बाकी सब जस का तस है।..
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गंगा महतो
खोपोली।
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(फ़ोटो साभार : गूगल . … गूगलिंग करते-करते ही ये फ़ोटो हाथ लगा और मैं अपने बीते दिनों में चला गया)
“देखिये महतो जी … आपका ई बेटवा न पढ़ने-लिखने में ठीक-ठाक है.. आप हर एक दो रोज बाद इसको स्कूल से उठा के ले जाते है… प्रभाव पड़ता है इसका पढ़ाई में!”
“अब का कहे मास्टर जी .. घर में तकलीफ है तबे न ले जाते है.. अगर घर में कोई रहता है तो लेने नहीं आते है।“
“ठीक है .. ले जाइए।“
मैं अपना बोरा और झोला उठाता और बप्पा के पीछू-पीछू घर आ जाता।
बीच रस्ते में बोलते आते “हमको मालुम है तुमलोग पढ़-लिख के नेहाल करोगे … बड़का फोरमेन आर इंजीनियर बनोगे!”.
मैं बस सुनते-सुनते बप्पा के पीछू-पीछू घर आ जाता । बप्पा खाना-पीना खा के साइकिल उठाये और निकलने लगे ड्यूटी को.. जाते-जाते समझा रहे है “घर से बाहर कहीं मत निकलना.. यहीं आँगन में ही खेलते रहना जब तक मैया बोन (वन) से न आ जाये.. गाय-गरु, छेगरी-पठरु का ध्यान रखना.. करहैया(कड़ाही) में धिपवल(गर्म किया हुआ) दूध रखा हुआ है.. बाबू-नूनी कांदेगा(रोयेगा) तो पिला देना.. और हाँ अगर मैया लेट करती है तो चूल्हा भी जला लेना.. ठीक है ?”
“हाँ ठीक है बप्पा “
“अच्छा ठीक है फिर हम चलते है”
“हाँ ठीक”
बप्पा पैंडिल मारते हुए ड्यूटी को निकल लेते है… मैं आँगन का टाटी(टीने से बना हुआ दरवाजा) बन्द करता और अपने भाइयों और बहन को सँभालने लग जाता। .. हमलोग चार भाई और एक छोटी बहन .. छोटी बहन और भाई दोनों जुड़वा है.. मैं मंझला.. याने मेरे से छोटे तीन .. मेरा बड़ा भाई नावाडीह में पढ़ने जाता था.. तो उसको घर लौटते-लौटते शाम के पाँच बज जाते थे। तो अगर घर में कोई न रहा तो सारी जिम्मेवारी मेरे ऊपर और उस दिन मेरा स्कूल नहीं जाना या फिर स्कूल से वापिस आना तय।
खैर मैं अपने भाई-बहन को सँभालने लगा.. आँगन हमलोग का बहुत बड़ा था.. इतना बड़ा कि खलिहान उसी में करते थे.. उसी हम खेलने लगे… कभी पठरु(बकरी का बच्चा) के साथ तो कभी लेरु(बछड़ा) के साथ.. क्योंकि उस टाइम गाँव में मनोरंजन के कुछ अन्य साधन थे भी नहीं थे.. अपना मनोरंजन बस इन्हीं सब के मध्य होता था.. पठरु और लेरु को हम प्यार से बाबू-बाबू कहते थे.. छोटा भाई पठरु को गोद में ले के खेलते रहता था.. तो कभी उसको आँगन में दौड़ा-दौड़ा के उसके पीछे भागता.. वो सब भी अपनी माँओं के पास कम और हमलोग के पास ज्यादा रहते थे.. अभी खेलते हुए कुछ देर हुआ ही था कि टाटी के खड़खड़ाने की आवाज आई .. मेरी बहन दौड़ती हुई टाटी के पास पहुँची.. टाटी के फ़ाँक से देखते ही तुतलाते हुई ख़ुशी से चिल्लाने लगी “लतिया(रतिया) के बल्दा आय गेलो.. लतिया के बल्दा गेलो !” .. मैं गया और टाटी खोल के “रती महतो के बैल” को अंदर ले आया। .. अन्य गाय-गोरु शाम को पाँच बजे तक आते थे लेकिन रती महतो का बैल दो बजते-बजते ही घर को आ जाता.. शायद हम बच्चों का प्यार ही कह सकते है कि वो इतनी जल्दी आ जाता था !! .. मेरे भाई लोग उसके साथ खेलने लगे.. उसको गुदगुदाते ही वह बैठ गया.. और मज़ा लेने लगा.. मैं सुप उठाया और बीटा से कुछ महुआ और नमक ले के गमले में पानी डाल के उसके आगे कर दिया.. मेरा भाई हाथ से घोल-घोल के पिला रहा था.. एक साँस में ही पूरा पानी खत्म कर दिया.. फिर वह अपने साथ खेलने में मगन हो गया.. वह भूल से भी न कभी लात मारता था और न ही सींग.. उसको हमलोग के साथ में खेलने में आनन्द आता था.. मेरे भाई लोग उसके ऊपर चढ़ जाते लेकिन कभी बिदकता नहीं था.. बस पूँछी तान के खड़े हो जाता था। .. बस ऐसे ही समय गुजर रहा था.. इतने में ही मेरा छोटा भाई किसी बात पे रोना स्टार्ट कर दिया.. मैं लगा उसको चुप कराने लेकिन वो चुप ही नहीं होता.. बस “मैया-मैया” की रट लगाना शुरू कर दिया .. मैं बोलता “अरे मैया अब आ जायेगी.. टेम हो गया है.. आती ही होगी.. रस्ते में होगी.. चुप हो जाओ चुप हो जाओ..” लेकिन वो है कि चुप होने का नाम ही नहीं लेता.. और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगता .. “दूध पियेगा बाबू ??” कुछ सुनना ही नहीं चाहता.. फिर बोला “चलो भुनु काकू का दोकना(दूकान) उ पँखा वाला लेमचूस ले देते है!” इतना सुनते ही उसके रोने की स्पीड एकदम से धीमी हो जाती है.. झर-झर गिरते आँसू एकदम से ब्रेक लगा लेते है.. बाकी के आँसू पोछते हुए जल्दी चलो जल्दी चलो कहने लगा… फिर उसको दूकान ले के गया.. लेमचूस खरीद के दिया तब जा के चुप हुआ।
साढ़े चार बज चुके थे.. मम्मी नहीं आई थी.. मेरी दादी जो बीमार खटिया में लेटी रहती थी चिल्लाने लगी “अरे मोदिया .. चुल्हवा जला दो न रे .. पता नहीं तोर मैया कब तक आएगी ?” .. फिर मैं कोयला-काठी निकाला और चूल्हा जला दिया .. आग जब गनगनाने लगा तो.. भात के लिए डेगची में ‘अधन’ भी चढ़ा दिया। .. अधन चढ़ा के मैं घर के अंदर ही था कि बाहर कुल्ही में से आवाज आई “जेटला(मेरा नाम जो सिर्फ मैया बोलती है) .. अरे जेटला.. टटिया खोल रे !” मैया सर में काठी का बोझा लिए आवाज लगा रही थी.. मेरे भाई-बहन दौड़ के टाटी के पास पहुँच गए और लगे ख़ुशी के चिल्लाने “मैया आय गेलो.. मैया आय गेलो” .. और उछल-उछल के रस्सी को खोलने की कोशिश करने लगे जिससे कि टाटी बंधा हुआ था.. लेकिन उ सब के पहुँच के बाहर था.. मैं गया और रस्सी खोल दिया.. मैया बोझा ले के अंदर आने लगी … दोनों भाई-बहन साड़ी पकड़ के अंदर आने लगे .. बीच आँगन में पहुँच के “अरे भागो.. भागो.. बोझा पटकने दो.. दूर हो जाओ.. नहीं तो लग जाएगा।“ मैं गया दोनों को पकड़ के साइड किया तब जा के मैया ने बोझा पटका।.. अब जा के दोनों भाई-बहन माँ से चिपक लिए.. और लगे बोलने “मैया.. मैया .. आईझ बोनवा से की आइन देली गे.. की आइन देली गे... जल्दी दे .. जल्दी दे !” .. मैया अपना आँचल सामने लाती है और उसको खोलती है.. सरय (सखुआ) के पत्ते में बंधा ‘साईया कोइर्(बेर) और कन्नौद’ रहता है.. दोनों भाई-बहन को थमा देती है.. मैं गया और बोला “हमको नहीं दोगे बाबू ?”
“नहीं .. नहीं देंगे.. हम अकेले खाएंगे .. मैया ने हमले लिए लाया है !”
“अच्छा .. ठीक है.. फिर हम ले जाएंगे कभी भुनु काकू का दोकना पँखा वाला लेमचूस खिलाने !”
फिर वह कुछ साईया कोइर् और कन्नौद निकाल के देता..!
मैया बैठ के सभी लकड़ियों को टांगी से टुकड़े-टुकड़े करती है और मैं और मेरे से छोटा वाला भाई उसको बारी में बने मचान में ले जा के रखने लगते है। मैया हमेशा जंगल से कुछ न कुछ खाने का फल-सब्जी लाते रहती थी.. पियार,भेलवा,बेल,कुन्दरी,खुखड़ी,फुटका,साग,खकसा.. और ऐसे ही।
काठी को मचान में रखने के बाद “नेठो’’(पत्तों गुच्छों से बनाया हुआ जिसको मुंडी में रखते है जिससे कि बोझा का भार सर पे ज्यादा न गड़े) को ले बाहर गली में निकलता और उसमें अपने भाइयों को बिठा के गली की सैर कराता।
मेरे घर का लगभग ये रोज का काम था… मेरा स्कूल का नागा होना आम बात था.. साल भर कुछ न कुछ ऐसे ही काम चलते रहते थे… मेरी दादी मेरे बप्पा से बोलती “अरे बड़का नतिया को बिहा कर दो न.. उसकी कनेया कम से कम घर-दुआर देखने का तो काम कर ही सकती है न .. जेटला बाबू को रोज-रोज इस्कूल से उठा के ले आते हो.. अकेले कितना काम करेगा बेचारा.. बाल-बुतरू से ले के छेगरी-पठरु, गाय-लेरु, चूल्हा-चौकी.. का का करेगा ई? .. जल्दी से बड़का नतिया को बिहा करो!” .. खैर दादी ये कहते-कहते चल बसी .. मैं जब सातवीं कक्षा में पहुँचा तब जा के भैया का शादी हुआ .. और फिर तब से मेरा इस्कूल जाना रेगुलर हुआ। .. भौजी अब अन्य संगियों के साथ अपनी-अपनी सासु माँओं का बोझा लोकने जाने लगी.. बल्कि अब भी जा रही है।
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मैया अब बुढ़ाय गई है .. फिर भी जंगल जाते रहती है.. कुछ न कुछ जंगल से अपनी नाती-पोतों के लिए खाने के लिए लाती रहती है.. हम कभी उपस्थित रहे तो छोड़ते नहीं है खाना .. पूरा कब्जा कर लेते है। बोलता हूँ ‘तुमलोगों ने बचपन में पूरा का पूरा खाया है.. अब हमारे खानी की बारी है .. एक भी नहीं दूंगा।‘ मेरी बड़ी दीदी को जब भी फोन लगाओ तो वो घर में मिलती ही नहीं है .. भांजे बोलते है ‘मामू मैया अभी बोन गेल हो .. ऐतो ने तो मिस कॉल कर देबो!”। .. छुट्टी में जब भी दीदी घर जाता हूँ तो दीदी तुरंत लकड़ी-काठी का जुगाड़ करने लगती है.. घर धुंआं-धुंआं हो उठता है ! … धुंवे से आँसू पोछते-पोछते चाय बना ला देती है।
बोकारो जिला में चार ठो पॉवर प्लांट है और ये शायद कोई रेकॉर्ड भी है.. दूसरों राज्यों को बिजली सप्लाय होती है.. लेकिन हमारे गाँव में 2002 में बिजली आई.. ! वो भी बस नाम का ! .. 2008-09 के बाद थोड़ी हालत सुधरी है।
ऊपर जो मैंने अपनी आप-बीती वर्णन की है, तब और आज में ज्यादा से ज्यादा से महज 7 से 10% का बदलाव आया है.. बाकी सब जस का तस है।..
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गंगा महतो
खोपोली।
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(फ़ोटो साभार : गूगल . … गूगलिंग करते-करते ही ये फ़ोटो हाथ लगा और मैं अपने बीते दिनों में चला गया)
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