आज सुबह-सुबह भाभी बहुत गुस्से में थी .. कुँए के पास बैठ के बर्तन बहुत ज़ोर-ज़ोर से और गुस्से से घिस रही थी.. थाली के ऊपर राख लगाती और पूरी बेरहमी के साथ उसे अन्य बर्तनों के ऊपर पटक दे मारती .. और फिर एक कर्णप्रिय ध्वनि उत्पन्न हो हमारे कानों में टकराती जब हम बारी में लगे भिन्डी में पानी पटा रहे होते हैं.. कोयले के चूल्हे में चढ़ी चाय को बनाते हुए हमरी मैया कुँआ में बदली हुई भाभी के रूप को अपनी अनुभवी और पारखी नज़रों से स्कैन कर रही हैं। भैया वहीँ कुँए के रेलिंग में बैठ के खैनी थापते हुए भाभी को निहार रहे हैं पर कुछो बोल नहीं पा रहे है। कुछ तो गड़बड़ होने की आशंका या फिर नई मांग की मंशा प्रबल होते नज़र आ रही हैं। भाभी गुस्से को ज़बान पे नहीं लाई है.. बस अपने काम करने के तरीके से बता रही है कि जब भी मुँह खोलेगी कुछ न कुछ नया डिमांड ज़रूर करेगी। .. बर्तन मांजते-मांजते बिजली चली गई.. चल रहा टुलु पम्प बन्द हो गया ! अब राख लगे बर्तन को सुखा होने के लिए छोड़ नहीं सकती थी… एकदम से झल्लाती हुई उठी और पुल्ली से लगे रस्सी में बंधी बाल्टी को उठाई और सीधा कुँए में दे मारी.. बाल्टी एकदम से सनसनाते हुए चभांग से पानी में जा गिरा .. भाभी ने दो बार और बाल्टी को ज़ोर-ज़ोर पटकी और सुपरमैन की तेज़ी से ऊपर खींची और सामने पड़े गमले में धपाक से पानी उड़ेल दी। इसी तरह दो बाल्टी और पानी खींची और उसी गुस्से से पानी उड़ेल दी। सारे बर्तन धोई और डेगची में पानी भर के मुंडी में उठाई और सीधा धड़ाम से चूल्हे पे जा के पटक मारी। उसी गुस्से से सुप और पैला उठाई और चावल ले आई और ज़ोर-ज़ोर से सुप फटकारने लगी.. इतने ज़ोर से फटकार रही थी कि अच्छे चावल भी सुप से बाहर आ रहे थे... और उसे दोबारा उठा के सुप में वापिस भी नहीं रख रही थी.. मम्मी जो भाभी का नाटक बर्तन धोने से लेकर अबतक देख रही थी, बर्दाश्त नहीं हुआ.. और भाभी को टोक दी , “ अगे ऐ बपढोहनी बिहाने से तोरा नाटक देख रहे है.. का चल रहा है ई तुम्हारा.. सब कुछ पटक पाटक के काम कर रही हो .. का चाही तोरा के .. का समस्या है तोरा.. हाँ.. ? “.
भाभी सुप से चावल को गमले में उड़ेल के धोते हुए तमतमाते हुए बोली, “ अब हमरा से कुंआ से पानी नहीं खींचा जाता है.. और वहां से मुंडी में उठा के पानी नहीं ढोया जाता है… वहाँ जा के बर्तन नहीं मांजा जाता है.. बहुत कर लिया हमने गधों जैसा काम … . अब और नहीं .. हमको किचन रूम में ही पानी चाहिए… नल वाला पानी चाहिए.. छतवा पे टंकी बैठा के दो.. गाय-गोरु के लिए बार-बार हमसे पानी खींचा और ढोया नहीं जाता है.. हमको टंकी बैठा के दो.. किचन और बरद सब के लिए कुड़ी के पास नलका बिठा के दो.. नहीं तो अब मेरे से काम-धंधा नहीं होगा.. हाँ.. बताय दे रहे हैं।“
मम्मी , “ बड़का टंकी वाली बनी है… एतना ही टंकी का पानी पीने का शौक है तो … जाव बप्पा घर से पैसा ले आओ … टंकी बैठाय देते है!”.
भाभी, “ जेतना पैसा बाप घर से लाना था बिहवे के टेम पे ले आये थे … अब सब चीज के पैसा खातिर नैहरे जाये का.. तो फिर ससुररिया के टका कौन काम का ? .. हम कुछो नहीं जानत है.. हमको टंकी बिठा के चाहिए तो चाहिए .. बस.. और कुछ नहीं!!”.
मम्मी,” हाँ अब यही बाकी रह गया था… टंकी बिठवाना.. मुँहवा के सामने कुँआ तो है.. जब रस्सी से खींचा नहीं जा रहा था तो पुल्ली लगा दिए.. फिर जब उससे भी खींचा नहीं जाने लगा तो टुलु पम्प लगवा दिए थे.. उसके बाद तो खाली स्विच ऑफ़/ऑन करना पड़ता था. अब वहाँ से तुम्हें ढो के लाने में भी समस्या हो रही है तो … अब टंकी भी लगवा देंगे… लेकिन रुषो मत..!! अरे ऐ बड़का बाबू…. जाव नावाडीह के बनिवा के दोकना आर टंकी लाय के बहुरिया के खातिर बिठा दो.. अब इससे और कष्ट नहीं सहवाना हैं’“ मम्मी ने स्तिथि के नज़ाकत को समझते हुए बोली। .
भैया ने मम्मी का ऑर्डर पाते ही नावाडीह को निकल लिए..
मम्मी, मैं, मेरी छोटी बहन और मेरे दो छोटे भाई एक साथ आँगन में खटिया में बैठ के चाय पी रहे हैं.. भाभी का ये रूप देख के मम्मी अपने बहु वाले दिन में चली जाती है और अपनी दास्ताँ सुनाने लगती हैं .. “ आजकल के पुतोह सब.. पता नहीं माय के पेट से ही सुखियाल पैदा होती हैं.. सबकुछ मुँहवा के सामने जोहवल(हाज़िर) चाही.. ज़रा सा भी चलना-भूलना नहीं चाहती.. हाथ-पैर चलाना नहीं चाहती .. सबकुछ मशीन आर ऑटोमैटिक वाला चीज सब चाही .. ऐसी बहुयें अगर हमारे टेम पे होती न तो एकदम से पसर जाती!.. झुनिया बूढ़ी (मेरी दादी) जब घर में घड़ी नहीं होती थी, तब भिनसोरिया-भिनसोरिया ही मुर्गे के पहली बांग के साथ ही हम तीनों गोतनी को कूच-कूच के उठाती और ढेंकी(धान कूटने की देहाती मशीन) कूटने को लगा देती थी... सुबह होते-होते एक मन(40 kg) धान कूट डालते थे और फिर सब मिल के चावल से भूंसा को सूप से पोछर-पोछर(फटकारना) अलग करती थी.. ये मेरे हाथ की उँगलियाँ देख रहे हो तुमलोग.. एक भी सीधा काहे नहीं है ?? … सब ऊँगली ढेंकी से चावल निकालते हुई टूटी हुई हैं।.. चावल पोछरने के बाद हम सब सरपचवा घर के कुँआ जाती थी पानी लाने के लिए.. मालूम है न सरपचवा का घर कहाँ है ? .. वहाँ से पानी ढो के लाती थी और गाय-गोरु से लेकर राँधने-बाँटने तक और बारी में लगे सब्जी तक के लिए पानी वहाँ से ढो-ढो के लाती थी… फिर माड़-भात और अलुआ का चोखा खा के जंगल जाती थी.. लकड़ी काट के लाती थी जलावन के लिए.. फिर साँझ को वही पानी-परुआ और गाय-गोरु.. !! गोंदली, धान, मड़ुआ, कुर्थी, जोंढ़रा(मकई),लाहेर, सुरगुजा,तिल,घँघरी,सीम, महुआ… इतना सब उगाती थी और खाती थी .. अब एकरा में से का उगाते हो ?.. धान,जोंढ़रा आर सीम .. और का ?? .. सब के सब तो दूकान से ले के खाती हो.. ढेंकी कूटना तो आजकल लोग भूल ही गए है… जितना हमलोग काम करती थी.. उसका तो तुमलोग 10 पैसा भी नहीं कर सकती हो.. दिन भर बस बात कुंदती हो और नया-नया चीज आर सुविधा का डिमांड करती रहती हो… कल तुमसे लोरही और पाटी (सिलपट्टा) में मशाला पीसा नहीं जाता था तो मिक्सर ले आई.. आज टंकी का डिमांड की हो.. एक महीना बाद वाशिंग मशीन का डिमांड करोगी.. उसके बाद कोई और.. केतना सुखियाल दुनिया हो गया है आजकल गे मइया !!”.
फिर वहाँ से मम्मी उठती है और टोकरी उठा के बारी में साग तोड़ने चली जाती है।
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मम्मी तो उठ के चली जाती है .. लेकिन अपने साथ-साथ हमें भी उस दौर में ले के चली जाती है .. आज से ज्यादा तो नहीं.. यही कोई 17-18 साल पहले.. स्तिथि वैसी थी जिसको मेरी माँ ने वर्णन किया.. पुरे गाँव में तीन ही कुँए हुआ करते थे.. दो सार्वजनिक और एक जन का पर्सनल.. इन्हीं कुंओं से पुरे गाँव को पानी सप्लाई होती थी… ज्यादातर पानी ढोने का काम महिलाएं ही करती थी.. कुँए में लगी मोटी लकड़ी पर से रस्सी के माध्यम से पानी खींचती थी.. रस्सियों के आवन-जावन से लकड़ी में 2-3 इंच तक गढ्ढे हो जाया करते थे। .. घर में कोई मेहमान आया तो, ठंडा पानी के लिए रस्सी-बाल्टी और डेगची उठाओ और दौड़ भागो कुँआ की ओर। और इन सब चीजों में मैं और मेरे भाई मम्मी की खूब मदद करते थे.. मम्मी के साथ जंगल भी जाया करता था.. मम्मी बोझा बांध देती और मैं उठा के ले आता था।..
.. समय बीतता गया और लोगों के पास पैसे आने शुरू हो गए… पैसे आने शुरू हो गए तो.. सुविधाओं में इज़ाफ़ा होना भी शुरू हो गया.. सबसे पहले तो लोग सार्वजनिक कुँए से पर्सनल कुँए और चापानल में आ गए.. सबके घर में पानी के स्रोत हो गए.. लेकिन घर के कुँए में से भी खींचने में प्रॉब्लम आने लगी.. तो टुलु पम्प लग गया.. अब उसमें से भी वहाँ से पानी ढो के किचन तक लाना भी बहुत दुष्कर कार्य होने लगा.. तो अब सबके घरों में पानी के टंकी बैठाये जा रहे हैं। ऐसे ही अन्य सुख-सुविधाओं से लोग अपने को लैश कर रहे हैं। जो नया चीज गाँव में इंट्रोड्यूस किया वो ज्यादा मॉडर्न और फिर उसके बाद उसको बराबरी करने की होड़।.. बस यही चल रहा है भिया अपने गाँव-देहात में।
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इसके माध्यम से मैं ये नहीं जस्टिफाई कर रहा हूँ कि पुरानी चीजों को पकड़ के रखिये और नई चीजों को नज़रअंदाज़ कीजिये.. लेकिन थोड़ा सामंजस्य बैठाइए.. !
कहने को एक लास्ट में एक बात कह रहा हूँ.. आज से 17-18 साल पहले मेरे अगल-बगल के 5-6 गांवों में सिर्फ एक ही डॉक्टर हुआ करता था.. कोई भी ज्यादा सीरियसनेस नहीं आती थी.. बस एक टेबलेट और सुई भर से सबकुछ सामान्य हो जाता था.. लेकिन अब औसतन 5 घर में एक डॉक्टर हैं.. और सीरियसनेस ऐसी-ऐसी कि सीधा बोकारो,रांची रेफर करना पड़ जाता हैं। जहाँ हम डॉक्टर को देख के ही भाग खड़े होते थे वो अब बहुत फेमीलियर हो चुके हैं। .. ये मत खाओ .. वो मत खाओ.. डेटोल से हाथ धोओ.. लाइफबॉय से हाथ धोओ.. फलाना.. ढिमकाना.. डॉट.. डॉट.. डॉट.. !! फिर बीमारियां हैं कि .. ! .. अपन सब तो इन सब चीजों के बारे में जानते भी नहीं थे.. लेकिन फिर भी तब एक ही डॉक्टर हुआ करता था.. और अब इन सब चीजों के होने के बावजूद, सुविधाओं के होने के बावजूद भी डॉक्टरों का मेला लगा रहता हैं। .
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हमें समझ में नहीं आता कि हम गंवारपन को छोड़ कर सो कॉल्ड एडुकेटेड और मॉडर्न हो के किस ओर और किधर को तरक्की कर रहे हैं ??
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गंगा महतो
खोपोली।
Sunday, July 17, 2016
आधुनिकता
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