Sunday, July 17, 2016

||सीख||

मंगर दा और मैं अपने खेत में सावन के महीने में धान की बुवाई हेतु हल चला रहे हैं. मंगर दा आगे-आगे चल रहे हैं और मैं उनके पीछे-पीछे आँतर को दोहराते चल रहा हूँ. मेरे दो भाई खेत के आरी का कुदाल से पोछारी मार रहे हैं. मेरी माँ और अन्य तीन भाभियां धान के पौधे उखाड़ रही हैं…. एक युवा कवि पिंटू कुमार “निर्झर’’ खेत के आरी(मेढ़) में बैठ के खेत में चल रही गतिविधियों को कविता के माध्यम से जीवंत कलमबद्ध कर रहा हैं…
“ उषा की पहली किरण और धीमी बारिश में,
मंगर दा संग अपने अनुज,
बैल औ हल साथ खेत में उतरे हैं.
बादलों की गड़गड़ाहट , हवाओं की सरसराहट, बैलों की घंटियां,
चिड़ियों का कलरव , धान उखड़न की चर-चराहट, पानी की कल-कलाहट,
कुदालों से निकलती खप-खप की आवाज़ें औ दादा की हाइर्-हुर्र, पैच्छ-पाइच्छ
का क्या अद्वितीय, अप्रतिम मिश्रण संगीत के सातों सुरों को लयबद्ध कर रहा हैं।
आह…..!!
क्या मनोरम,मनमोहक, मनोरंजक तान छिड़ी हैं.
क्या मोहक धुन हैं जो
हमें बेसुध कर रही हैं
कृष्ण की बांसुरी की मीठी तान को सुनकर
सुध-बुध खोने वाली गोपियों की तरह।।
जी कर रहा बस यही मेढ़ में बैठा रहूँ
मंगर दा बस हल जोतते रहे
और मैं कविताएं लिखता रहूँ।।।
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इतने में मंगर दा ने “निर्झर” को आवाज़ दिया, “ अरे वो पिंटुवा…. वहाँ अरिया में बइठ के का कर रहा हैं रे ?”
निर्झर – “ आप जो खेत में कर रहे हैं न मंगर दा, उसको हम कविता के माध्यम से शब्दों में पिरो रहे हैं”.
मंगर दा –“ मतलब हमका काम करेत देख के उसको लिख रहा हैं ? “
निर्झर – “ हाँ… मंगर दा “.
मंगर दा – “ अच्छा... अच्छा... तनिक हिया आव तो… खेतवा में “.
निर्झर – “ अरे दा… हम खेतवा में क्या करेंगे ?”
मंगर दा – “ अरे आओ तो सही.. “
निर्झर अटपटे मन से अपनी लेखनी और कॉपी को समेट के छाते के नीचे रख के खेत में उतरता हैं. जैसे ही मंगर दा के सामने आता हैं, मंगर दा उसको हल का बूटा( हैंडल) पकड़ा देते हैं और बोलते हैं, “ ले तनिक हल चलाओ तो, तब तक हम थोड़ा खैनी खा लेते हैं “
निर्झर एकदम से घबराते हुए, “ अरे दादा… लेकिन हमको हल चलाना थोड़े आता हैं”.
मंगर दा – “ हमें मालुम हैं……. फिर भी चलाव “
मंगर दा के हाइर्-हिम् करते ही बैल चल पड़ते हैं… निर्झर बूटा को पकड़ के ऐसे चल रहा हैं जैसे 70 साल का बूढ़ा लाठी पकड़ के चलता हैं. कुछ देर आगे चला ही था कि बैलों को मुड़ने को आया, बैल तो मुड़ने लगे लेकिन निर्झर ने बूटा को जम के पकडे रहा, नतीजतन बायें वाले बैल को फार लग गया( वैसे ज्यादा नहीं लग पाया) इतने में दादा ने आ के तुरंत बूटा संभाल लिया. और ‘हो… हो’ करते ही बैल रुक गए.
अब मंगर दा निर्झर की ओर मुख़ातिब होते हुए, “ बूटा पकड़ने का लूर नहीं… और चले हो पूरे हल और बैल पे कविता लिखने ….. हाँ.. ??”
निर्झर थोड़ा संभलते हुए और माथे का पसीना पोंछते हुए बोला, “ तो क्या… अगर हम हल चलाना नहीं जानते तो क्या हल पे कविता भी नहीं लिख सकते ?? “.
मंगर दा – “ अरे बिल्कुल लिख सकते हो…. लेकिन दूसरे का किया हुआ और देखा हुआ, और अपने से किया हुआ का लिखने में बहुत फर्क़ होता हैं. तुम सिरफ उनको लिख सकते हो अनुभव नहीं कर सकते….. जैसे अगर तुम्हें बैल के फार लगने पे लिखना होता और अगर वो फार हमने लगाया होता तो तुम वैसा नहीं लिख पाते जैसा कि अब तुम बैल को फार लगाने पे लिख सकते हो…. एक भूखे के दर्द को तुम तब तक समझ और लिख नहीं पाओगे जब तक तुम खुद उस लेबल तक की भूख को अनुभव नहीं करोगे….. समझा…. तो कुछ लिखने से पहले उसको जीया करो… बड़ा आनंद आयेगा लिखने में. “
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मंगर दा के इस दिव्यज्ञान से मैं अपने आप को रोक नहीं पाया. मैं पीछे से हल छोड़ के आया और मंगर दा को चरण स्पर्श कर लिया.. !!
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आज तक उनकी बात को गाँठ में बाँध के रखा हूँ.
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गंगा महतो
खोपोली.

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